वर्षों बाद देश में गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। पिछले साल इसका कुल उत्पादन 855 लाख टन था, जो इस बार बढ़कर 900 लाख टन से भी ज्यादा होने की उम्मीद है। पर विडंबना है कि फसल कम होने पर भी किसानों को नुकसान है और ज्यादा होने पर भी। इस बार सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य 1,285 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सरकारों ने 100 से 150 रुपये बोनस देकर गेहूं खरीदे। इस बार हालांकि सरकारी एजेंसियों ने अब तक गेहूं की खरीद ज्यादा ही की है। पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व में सरकारी खरीद का लक्ष्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए ही अनाज उपलब्ध कराना होता था।
पिछले कई वर्षों से सरकार ने इससे अपने हाथ खींच लिए और आपूर्ति का दायित्व केवल गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए ही रह गया था। लेकिन अब खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल के लिए भी गेहूं की खरीद जरूरी है। पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक लाया गया, जिसे इस वर्ष पारित किया जाना है। कानून द्वारा खाद्य सुरक्षा की गारंटी के चलते सरकार को भारी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी होगी। इस नए कानून के माध्यम से गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न मिलने हेतु कानूनी प्रावधान होगा। प्रस्तावित कानून के अनुसार, ग्रामीण जनसंख्या के 90 प्रतिशत और शहरी जनसंख्या के 50 प्रतिशत लोगों को इस कानून का लाभार्थी बनाया जाएगा।
गेहूं की सरकारी खरीद का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसान को बाजारी शक्तियों पर न छोड़ा जाए। कटाई के बाद जब बड़ी मात्रा में गेहूं मंडियों में आता है, तब इसका भाव गिर जाता है। ऐसे में जिन किसानों के पास गेहूं का भंडारण कर उसे भविष्य में बेच पाने की जरूरी ताकत नहीं होती, उन्हें औने-पौने भाव पर अपनी फसल बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है। लेकिन जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर किसान से उसकी फसल खरीदती है, तब बाजारी शक्तियों पर उन किसानों की निर्भरता समाप्त हो जाती है और उन्हें अनिश्चय का सामना नहीं करना पड़ता। यह केवल किसानों के फायदे का सौदा ही नहीं है, देशवासियों के लिए उचित कीमत पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए भी यह जरूरी है। गेहूं की फसल सामान्यतः एक महीना तक मंडियों में आती है, लेकिन इसका इस्तेमाल वर्ष भर चलता है। सरकार अपने भंडारों से समय-समय पर गेहूं की बिक्री कर सकती है, जिससे उसकी कीमत नियंत्रण में रहती है। इस प्रकार देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी सरकार द्वारा समर्थन मूल्य देकर गेहूं की खरीद करना एक जरूरी काम है।
लेकिन दुर्भाग्य है कि पिछले करीब एक महीने से सरकारी एजेंसियां गेहूं की खरीद नहीं कर रहीं। उनका कहना है कि उनकी खरीद का कोटा अब समाप्त हो चुका है। ऐसे में किसानों को अपनी फसल औने-पौने भाव में बेचनी पड़ रही है। लेकिन सरकारी एजेंसियों के पास पर्याप्त मात्रा में भंडारण की सुविधा नहीं है। इस कारण गेहूं की खरीद में कठिनाई आ रही है। पूर्व में भी भंडारण की कमियों के चलते पंजाब और हरियाणा में खाद्यान्न की काफी बरबादी होती रही है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी चिंता जताई थी, और सरकार से यहां तक पूछा था कि खुले में बरबाद हो रहे गेहूं को क्यों नहीं गरीबों में बांट दिया जाए? इसके बावजूद सरकार देश में भंडारण की उपयुक्त सुविधाएं जुटाने में विफल साबित हुई है।
योजना आयोग के दस्तावेज में सरकार ने माना है कि कृषि पदार्थों के भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए मात्र 7,687 करोड़ रुपये की जरूरत है, लेकिन वह शायद इतना पैसा खर्च करने के लिए भी तैयार नहीं है। उसका तर्क है कि भंडारण सुविधाओं के अभाव को देखते हुए ही खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को लाना होगा। ऐसे निवेशों से देश में भंडारण केंद्र खोले जाएंगे, जिससे फसलों को सुरक्षित रखा जाएगा। इतना ही नहीं भंडारण सुविधाओं के अभाव के चलते ही निजी एजेंसियां खाद्यान्न की खरीद में आगे बढ़ गई हैं। लेकिन क्या जब कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी एक सचाई है, तब सरकार को भंडारण सुविधाओं में बढ़ोतरी के बारे में गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए?
वर्षों बाद देश में गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। पिछले साल इसका कुल उत्पादन 855 लाख टन था, जो इस बार बढ़कर 900 लाख टन से भी ज्यादा होने की उम्मीद है। पर विडंबना है कि फसल कम होने पर भी किसानों को नुकसान है और ज्यादा होने पर भी। इस बार सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य 1,285 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सरकारों ने 100 से 150 रुपये बोनस देकर गेहूं खरीदे। इस बार हालांकि सरकारी एजेंसियों ने अब तक गेहूं की खरीद ज्यादा ही की है। पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व में सरकारी खरीद का लक्ष्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए ही अनाज उपलब्ध कराना होता था।
पिछले कई वर्षों से सरकार ने इससे अपने हाथ खींच लिए और आपूर्ति का दायित्व केवल गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए ही रह गया था। लेकिन अब खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल के लिए भी गेहूं की खरीद जरूरी है। पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक लाया गया, जिसे इस वर्ष पारित किया जाना है। कानून द्वारा खाद्य सुरक्षा की गारंटी के चलते सरकार को भारी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी होगी। इस नए कानून के माध्यम से गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न मिलने हेतु कानूनी प्रावधान होगा। प्रस्तावित कानून के अनुसार, ग्रामीण जनसंख्या के 90 प्रतिशत और शहरी जनसंख्या के 50 प्रतिशत लोगों को इस कानून का लाभार्थी बनाया जाएगा।
गेहूं की सरकारी खरीद का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसान को बाजारी शक्तियों पर न छोड़ा जाए। कटाई के बाद जब बड़ी मात्रा में गेहूं मंडियों में आता है, तब इसका भाव गिर जाता है। ऐसे में जिन किसानों के पास गेहूं का भंडारण कर उसे भविष्य में बेच पाने की जरूरी ताकत नहीं होती, उन्हें औने-पौने भाव पर अपनी फसल बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है। लेकिन जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर किसान से उसकी फसल खरीदती है, तब बाजारी शक्तियों पर उन किसानों की निर्भरता समाप्त हो जाती है और उन्हें अनिश्चय का सामना नहीं करना पड़ता। यह केवल किसानों के फायदे का सौदा ही नहीं है, देशवासियों के लिए उचित कीमत पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए भी यह जरूरी है। गेहूं की फसल सामान्यतः एक महीना तक मंडियों में आती है, लेकिन इसका इस्तेमाल वर्ष भर चलता है। सरकार अपने भंडारों से समय-समय पर गेहूं की बिक्री कर सकती है, जिससे उसकी कीमत नियंत्रण में रहती है। इस प्रकार देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी सरकार द्वारा समर्थन मूल्य देकर गेहूं की खरीद करना एक जरूरी काम है।
लेकिन दुर्भाग्य है कि पिछले करीब एक महीने से सरकारी एजेंसियां गेहूं की खरीद नहीं कर रहीं। उनका कहना है कि उनकी खरीद का कोटा अब समाप्त हो चुका है। ऐसे में किसानों को अपनी फसल औने-पौने भाव में बेचनी पड़ रही है। लेकिन सरकारी एजेंसियों के पास पर्याप्त मात्रा में भंडारण की सुविधा नहीं है। इस कारण गेहूं की खरीद में कठिनाई आ रही है। पूर्व में भी भंडारण की कमियों के चलते पंजाब और हरियाणा में खाद्यान्न की काफी बरबादी होती रही है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी चिंता जताई थी, और सरकार से यहां तक पूछा था कि खुले में बरबाद हो रहे गेहूं को क्यों नहीं गरीबों में बांट दिया जाए? इसके बावजूद सरकार देश में भंडारण की उपयुक्त सुविधाएं जुटाने में विफल साबित हुई है।
योजना आयोग के दस्तावेज में सरकार ने माना है कि कृषि पदार्थों के भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए मात्र 7,687 करोड़ रुपये की जरूरत है, लेकिन वह शायद इतना पैसा खर्च करने के लिए भी तैयार नहीं है। उसका तर्क है कि भंडारण सुविधाओं के अभाव को देखते हुए ही खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को लाना होगा। ऐसे निवेशों से देश में भंडारण केंद्र खोले जाएंगे, जिससे फसलों को सुरक्षित रखा जाएगा। इतना ही नहीं भंडारण सुविधाओं के अभाव के चलते ही निजी एजेंसियां खाद्यान्न की खरीद में आगे बढ़ गई हैं। लेकिन क्या जब कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी एक सचाई है, तब सरकार को भंडारण सुविधाओं में बढ़ोतरी के बारे में गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए?