इन दिनों कुछ पाठ्य-पुस्तकों की सामग्री पर मीडिया ट्रायल चल रहा है। सवाल उठता है कि देश में ऐसे कितने अभिभावक होंगे, जो चाहेंगे कि उनके बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जो किसी खास विचारधारा को उनके कच्चे मानस पर थोपे। चाहे विचारधारा को थोपने का काम आलेख के जरिये हो या किसी कार्टून के जरिये, वह बच्चों को निष्पक्ष सोच से वंचित करता है। अतः अगर शिक्षा को कार्टून में बदलने से रोकना हो, तो विचारधारा से ग्रस्त लोगों के हाथों में उसकी जिम्मेदारी नहीं सौंपनी चाहिए।
स्कूली पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने वालों में ऐसे लोग शामिल हैं, जो हाई स्कूल के छात्रों को राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया समझाना 'बेतुकी चीज' समझते हैं, जबकि देश-विदेश के असंख्य संगठनों, नेताओं, समस्याओं के बारे में सैकड़ों अबूझ प्रश्न रखना उन्हें बेतुका नहीं लगता। पाठ्य-पुस्तकों में संजीदा तथ्यों के बदले सैकड़ों कार्टून भर देना भी उचित नहीं कहा जा सकता। दरअसल यह पुरानी कम्युनिस्ट बीमारी है, जो बड़े पैमाने पर गैर-कम्युनिस्ट प्रचारकों को भी लग गई है। ऐसे लोग किसी पर लांछन लगाने, बड़बोले सवाल उठाने, हर जगह वंचितों, उत्पीड़ितों की खोज करने या गढ़ लेने और फिर रोषपूर्ण प्रवचन देने को शिक्षा, सर्वोत्कृष्ट शोध, अकादमिक लेखन और व्याख्यान मानते हैं। उन्हें कोरी लफ्फाजी और तथ्यों में कोई अंतर नजर नहीं आता।
बहरहाल ताजा एनसीईआरटी कार्टून विवाद से यह साफ हो गया कि उनके लिए शिक्षा का मतलब अपनी विचारधारा का प्रचार मात्र करना है। यह वामपंथी प्रचारक की क्रांतिवादी अहं-भावना को तुष्ट करता है। उन्हें शिक्षा के निष्पक्ष मानदंड की फिक्र नहीं है। उनके लिए पार्टी मानदंड ही सब कुछ है और वे विचारधारा को तथ्य से अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं। ‘पार्टनर! तुम्हारी आइडियोलॉजी क्या है?’ को ही वे बहुत बड़ा दार्शनिक और शैक्षणिक वक्तव्य मानते हैं। इसलिए अमेरिका की राजनीतिक प्रणाली की विशेषताएं बताने के बजाय अमेरिका-विरोधी छींटाकशी करना उन्हें बड़ा शैक्षणिक कर्तव्य प्रतीत होता है। देश की किसी राजकीय संस्था के बारे में जानकारी देने के बजाय कार्टून, पोस्टर, नारेबाजी उन्हें मौलिक ज्ञान लगता है। इन्हीं को वे ‘राजनीति पढ़ाना’ समझते हैं।
कोई भी गंभीर विद्वान ठोस आंकड़े, प्रामाणिक तथ्यों का भंडार जुटाए बिना कभी कोई निष्कर्ष नहीं देता, मगर राजनीतिक प्रचारक अपने अनुमान, राजनीतिक भावना आदि को दुहराते हुए अपने अंधविश्वास को ही सच मानने लगते हैं। सोवियत संघ का संपूर्ण अकादमिक, राजनीतिक वर्ग तीन पीढ़ियों तक इसी रोग से ग्रस्त रहा। भारत के मतवादी भी यही दिखाते हैं। किसी निष्कर्ष का आधार पूछते ही वे भड़क उठते हैं कि ऐसा सवाल पूछने वाला जरूर किसी विरोधी पार्टी या विचारधारा का एजेंट है।
मानो किसी बड़ी कुरसी पर बैठे लेखक-प्रचारक से उनके निष्कर्ष का प्रमाण मांगना उनकी तौहीन करना है। इसलिए उन्हें पाठ्य-पुस्तकों में कार्टून के औचित्य पर सवाल पूछना हैरत में डाल देता है। मानो उसकी उपयोगिता स्वयं-सिद्ध हो! पाठ्य-पुस्तकें संजीदा, मानक, संदर्भ-ग्रंथ जैसी चीज होती हैं, जिसे ज्ञान के लिए खोला जाता है, किसी का मत जानने के लिए नहीं। किसी का मत (ओपिनियन) जानने के लिए तो अखबार के पन्ने पलटे जाते हैं।
कार्टून पर विवाद की स्थिति में दलील दी जा रही है कि ये बड़े सम्मानित कार्टूनिस्टों के कार्टून हैं। जबकि मामला यह नहीं है कि कार्टूनिस्ट कितने योग्य हैं, बल्कि कुछ विशेष कार्टूनों से बच्चों के कच्चे दिमाग को विषाक्त किया गया या नहीं?
निस्संदेह, कार्टूनिस्टों ने उसे बच्चों की पुस्तक के लिए नहीं बनाया था। वे कार्टून उन वयस्क नागरिकों के लिए बनाए गए थे, जो किसी अखबार के पाठक थे, और तात्कालिक प्रसंग और उसकी तफसीलों से परिचित थे। इसमें क्या संदेह कि जब वही कार्टूनिस्ट बच्चों की किसी पाठ्य-पुस्तक के लिए कार्टून बनाते, तो वह नितांत भिन्न होता। साफ है कि इस बिंदु को ढककर कार्टूनिस्टों की प्रतिष्ठा की आड़ में अपने बचाव की दयनीय कोशिश की जा रही है।