बीते कुछ समय से गृह मंत्री पी चिदंबरम भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की कमी को लेकर परेशान हैं। विभिन्न राज्यों से पुलिस बल की निरंतर बढ़ती मांग और आतंकवाद और नक्सलवाद से जूझने के लिए नए संगठनों की संरचना आदि के लिए गृह मंत्री पी चिदंबरम को मौजूदा कोटे से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की जरूरत महसूस हो रही है।
इसके लिए वह शॉर्ट सर्विस कमीशन जैसी व्यवस्था बनाकर भारतीय पुलिस सेवा में सीधे भरती करना चाहते हैं, ताकि इनकी नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की लंबी चयन प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। गृह मंत्री की इस कोशिश से भारतीय पुलिस सेवा कैडर में बेचैनी है। पुलिस सेवा के अधिकारियों को डर है कि ऐसी व्यवस्था से भारतीय पुलिस सेवा का चरित्र बिगड़ जाएगा और इससे पूरे कैडर का मनोबल टूट जाएगा, क्योंकि इन नई भरतियों से पुलिस सेवा में ऐसे अधिकारी आ जाएंगे, जिन्हें लंबी और जटिल चयन प्रक्रिया से नहीं गुजारा गया है।
उल्लेखनीय है कि 1954 में नियम-7 (2) के तहत केंद्र सरकार ने साफ घोषणा की थी कि भारतीय पुलिस सेवा का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से किया जाएगा। हालांकि सेवा निवृत्त पुलिस अधिकारी कमल कुमार ने भारतीय पुलिस सेवा भरती योजना (2009-2020) की अपनी अंतिम सरकारी रिपोर्ट में इन भरतियों के लिए तीन विकल्प सुझाए हैं।
एक, सिविल सेवा परीक्षा में अगले कुछ वर्षों के लिए भारतीय पुलिस सेवा की सीटें बढ़ाना, दो, 45 वर्ष से कम आयु और न्यूनतम पांच वर्ष के अनुभव वाले राज्यों के उप पुलिस अधीक्षकों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा से चयन कर भारतीय पुलिस सेवा का दरजा देना, और तीन, सूचना प्रौद्योगिकी, संचार, वित्त एवं मानव संसाधन प्रबंधन आदि के विशेषज्ञों को कुछ समय के लिए पुलिस व्यवस्था में प्रतिनियुक्ति (डेपुटेशन) पर लेना, ताकि इन विशिष्ट क्षेत्रों में लगे पुलिस अधिकारियों को फील्ड के काम में लगाया जा सके।
उल्लेखनीय है कि 2010 में केंद्रीय गृह सचिव ने संघ लोक सेवा आयोग और विभिन्न राज्यों को पत्र लिखकर भारतीय पुलिस सेवा में सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भरती पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। इस पर संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने साफ शब्दों में कहा था कि अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र उसकी जटिल चयन प्रक्रिया और प्रशिक्षण व्यवस्था पर निर्भर करता है। इससे इतर कोई भी व्यवस्था इस प्रक्रिया की बराबरी नहीं कर सकती।
इस नई प्रक्रिया से भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों का मनोबल गिरेगा और कई तरह के कानूनी विवाद खड़े होंगे, जिनमें वरिष्ठता क्रम का भी झगड़ा पड़ेगा। उनका यह भी कहना था कि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया उस चयन प्रक्रिया से भिन्न है, जिसे आम तौर पर प्रांतों की सरकारों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए उस प्रक्रिया से चुने और प्रशिक्षित अधिकारियों को इसमें समायोजित करना उचित नहीं होगा। ऐसे में सिविल सेवा परीक्षा में ही भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की सीटें 200 तक बढ़ाई जा सकती हैं।
अनेक राज्य की सरकारों और देश के अनेक पुलिस संगठनों के प्रमुखों ने भी पुलिस अधिकारियों की सीधी भरती प्रक्रिया का खुलकर विरोध किया है। उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक में गृह मंत्रालय ने सीमित प्रतियोगी परीक्षा के जरिये पूर्व सैन्य अधिकारियों को भारतीय पुलिस सेवा में चुना था, लेकिन गृह मंत्रालय के उस निर्णय को 1975 में सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था।
उसके बाद से आज तक ऐसा चयन कभी नहीं किया गया। एक तथ्य यह भी है कि कानून मंत्रालय ने भी गृह मंत्रालय के इस प्रस्ताव का विरोध किया है। उसका कहना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 (3) के अनुसार, सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की सहमति लेना सभी मामलों में अनिवार्य होगा। इसलिए कानून मंत्रालय ने भी मौजूदा चयन प्रणाली में रिक्तियां बढ़ाने का ही अनुमोदन किया।
लेकिन इन तमाम विरोधों को दरकिनार कर गृह मंत्री पी चिदंबरम ने 11 मई, 2010 के अपने पत्र में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री को लिखा कि संघ लोक सेवा आयोग की आपत्तियों की अनदेखी करते हुए वह सीमित प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें। आश्चर्य की बात है कि गृह मंत्रालय ने 19 अगस्त, 2011 को भारतीय पुलिस सेवा (भरती) नियम, 1954 में संशोधन कर सीमित प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था कायम कर दी और इसके लिए तीन सितंबर, 2011 को भारत सरकार के गजट में सूचना भी प्रकाशित करवा दी।
अब यह परीक्षा 20 मई, यानी कल से शुरू हुई है, हालांकि इससे जुड़ी नियुक्तियों पर रोक लग गई है। देखना यह है कि इस मामले में गृह मंत्री अपनी बात पर अड़े रहते हैं, या उनकी इस जिद से उत्तेजित पुलिस अधिकारी किसी जनहित याचिका के माध्यम से इस चयन प्रक्रिया को रोकने में सफल होते हैं। सीधी-सी बात है कि यह एक गंभीर मुद्दा है और दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर आपसी सहमति से जो न्यायोचित हो, वही करना चाहिए। मूल मकसद है कि देश की कानून-व्यवस्था सुधरे। लिहाजा इस दिशा में हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए।