पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ इन दिनों खासे परेशान हैं। उन्हें डर है कि कहीं आईएसआई उनकी हत्या न करवा दे। अल कायदा से भी उन्हें भय है। ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद तो यह खतरा और बढ़ गया है। उनके राष्ट्रपति काल में ही ओसामा ने 'गद्दार' मुशर्रफ और पाक सेना से बदला लेने का ऐलान कर दिया था।
फिलहाल मुशर्रफ लंदन के एडग्वेयर रोड पर लाल ईंटों वाली इमारत के एक अपार्टमेंट में अपने दिन काट रहे हैं। वह बुलेट प्रूफ कार में चलते हैं। फिर भी अपनी सुरक्षा को लेकर वह निश्चिंत नहीं। शायद अब मुशर्रफ को यह एहसास हो रहा हो कि किसी देश या राजनीतिक दल द्वारा आतंकवाद को दिया गया प्रश्रय भस्मासुरी साबित होता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहां खुफिया एजेंसियों ने क्षुद्र स्वार्थों के चलते आतंकवाद के पौधे को सींचा और कालांतर में वही पौधा विशालकाय वटवृक्ष बनकर उन्हीं के सिर पर छा गया।
ओसामा बिन लादेन का ही उदाहरण लें। सऊदी अरब में जन्मे और इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त ओसामा को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान भरती किया था। राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद से प्रेरित इसलामी योद्धाओं को इसका बिलकुल भी आभास नहीं था कि वे सोवियत सेना के खिलाफ अमेरिका की और से लड़ रहे थे। सीआईए के सहयोग और भारी सैनिक सहायता की मदद से पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई उन दिनों सरकार के सभी पहलुओं पर नियंत्रण करने वाली समानांतर सत्ता का केंद्र बन गई थी।
सीआईए जहां सोवियत संघ को अफगानिस्तान से निकालकर अंतत: उसे नेस्तनाबूद कर देना चाहती थी, वहीं आईएसआई पंजाब और कश्मीर के आतंकवादियों को मदद पहुंचाकर भारत को विघटित करने पर आमादा थी। वर्ष 1982 और 1992 के बीच 40 मुसलिम देशों के 35,000 कट्टरपंथियों ने सोवियत-अफगान युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। दसियों हजार युवकों ने पाकिस्तानी मदरसों में तालीम पाई और एक लाख से अधिक विदेशी मुसलिम आतंकवादी अफगान युद्ध से प्रभावित हुए।
तब पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक की सैन्य सत्ता थी। उन्होंने अमेरिकी नब्ज को खूब दबाया। अमेरिका पाकिस्तान को जमीन से काम करने वाला रडार और बलून सिस्टम दे रहा था, जिसे अफगान सीमा पर लगाया जाना था। लेकिन जनरल जिया ने वह अमेरिकी पेशकश ठुकरा दी। उनका कहना था कि जब तक हवा में काम करने वाला वार्निंग सिस्टम नहीं दिया जाता, तब तक पाकिस्तान के लिए किसी अन्य सिस्टम की कोई उपयोगिता नहीं।
अंतत: पाकिस्तान को वह प्रणाली मिल गई, जिससे वह भारत को भी कवर कर सकता था। लेकिन भारत के खिलाफ आतंकवाद का पौधा सींचने वाले जनरल जियाउल हक विमान विस्फोट में मारे गए। अपने यहां भी भिडरांवाले और लिट्टे की मदद का भीषण खामियाजा भुगतना पड़ा। कहा तो यहां तक जाता है कि लिट्टे को हथियार के अलावा लड़ाई के लिए बाकायदा ट्रेनिंग भी दी गई।
इसके भी ब्योरे हैं कि तत्कालीन लिट्टे प्रमुख और अब दिवंगत प्रभाकरन श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए कई बात भारत भी आए थे। बाद में हमारी सरकार ने लिट्टे का विरोध किया। पहले जिस लिट्टे की हथियारों और पैसे से मदद की गई, बाद में उसी से निपटने के लिए श्रीलंका में शांति सेना भेज दी गई। चूंकि ये सारे फैसले राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में किए गए थे, लिहाजा उन्हें ही दोषी माना गया और श्रीपेरेंबुदूर के चुनावी दौरे के दौरान लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करवा दी।
जाहिर है, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बीच के किसी रास्ते का सवाल ही नहीं है। पाकिस्तान इसका खामिजाया भुगत ही रहा है। अमेरिका ने हालांकि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई छेड़ी है, लेकिन अब भी वह जिस तरह पाकिस्तान के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है, उससे उसकी प्रतिबद्धता पर शक होता है। आतंकवाद के खिलाफ आर-पार की लड़ाई के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।