एक थी मुन्नी और एक था उन्नी। दोनों थे शैतान, खुराफाती। घुट्टी में घोटकर पिलाई गई थी शैतानी दोनों को। हर बात पर हर किस्म के सवाल करने की आदत डलवाई गयी थी बचपन से। विशेषज्ञों का मानना था, देश-दुनिया की राजनीति को ठीक से समझने के लिए खुले दिमाग की जरूरत होती है और इसलिए मुन्नी और उन्नी को इसी तरह से तैयार किया जाए कि वे हर मुद्दे पर बेहिचक सवाल उठाने का साहस कर सकें और अपने आसपास की दुनिया को देखने का स्वस्थ नजरिया हासिल कर सकें। उनके ये खिलंदड़ी तौर-तरीके रामचंद्र गुहा, कृष्ण कुमार, सुनील खिलनानी और यशपाल जैसे देश के अनेक विशेषज्ञों को भी भाए थे। हम बात कर रहे हैं एनसीईआरटी की कक्षा नौ से बारहवीं की कक्षाओं की सामाजिक विज्ञान की किताबों के दो चरित्रों की जो अपने बेहिचक सवालों से विद्यार्थियों को किसी भी मुद्दे पर कई दृष्टिकोणों से सोचने-समझने के लिए प्रेरित करते हैं।
लेकिन छह दशकों से भी अधिक उम्रदराज हमारी पकती हुई लोकतांत्रिक परंपरा के जीते-जागते प्रतीकों यानी हमारे माननीय सांसदों में से कुछ को एकाएक इलहाम हुआ कि इन किताबों में से एक में छपे कार्टून से बाबा साहब अंबेडकर का अपमान हो रहा है और उससे प्रेरणा पाकर मानव संसाधन विकास मंत्री, कानूनविद कपिल सिब्बल की अप्रतिम मानवीय संवेदनाओं से भरपूर प्रतिभा ने मुन्नी और उन्नी की इस सवाल खड़े करने की आदत को अकाल मौत देने का इंतजाम करने की ठान ली। लगभग हर दल के सांसदों ने जिस तरह एकमत से इस कदम को सही ठहराया, उसने देश के सामने बेहद गंभीर सवाल फिर से खड़े किए हैं।
इस देश के युवा होते किशोर-किशोरियों को राजनीतिक प्रक्रिया और देश-दुनिया की वर्तमान राजनीति को समझने की जरूरत और आजादी है कि नहीं? मुद्दों की गहराई में जाए बिना और टोकनिज्म के आधार पर हमारे राजनेताओं को देश की शिक्षा के तौर-तरीकों और उसके कंटेंट संबंधी निर्णय देश पर थोपने की कितनी आजादी है? लंबी विचार प्रक्रिया और देश के अनके सम्मानित समाज शास्त्रियों, राजनीतिक अध्येताओं, शिक्षाविदों के विचार मंथन और अनुमोदन के आधार पर तैयार हुई एनसीईआरटी की इन किताबों में अचानक फेरबदल करने के बारे में खुली बहस की जरूरत है कि नहीं?
आगे बढ़ने से पहले पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित कार्टूनिस्ट मैट डेवीज़ का एक कथन जान लीजिए, 'जो देश के लिए खराब होता है, वही एक कार्टूनिस्ट के लिए अच्छा मसाला होता है।' तो जो देश के लिए अच्छा नहीं है, उसे जानने का अधिकार देश के युवा होते किशोर को है कि नहीं?
अब ले चलते हैं मेजों की थपथपाहट के संगीत के साथ बैन की गई एनसीईआरटी की किताबों के कंटेंट की ओर। सत्ता का बंटवारा, सरकारों का संघीय चरित्र, लोकतंत्र और विविधता, राजनीतिक दल जैसे मुद्दों की समझ से गुजर कर जब कक्षा दस का एक विद्यार्थी लोकतंत्र की उपलब्धियां पढ़ने के स्तर पर पहुंचता है, तो उसे किताब के पेज 98 पर पढ़ने को मिलता है- 'यह तथ्य, कि लोग शिकायत कर रहे हैं अपने आप में सुबूत है इस बात का कि लोकतंत्र सफल हो रहा है। यह दर्शाता है कि जनता में जागरूकता आई है और सत्ताधारियों को आलोचक की निगाह से देखने तथा उनसे हक मांगने की काबिलियत भी उसमें आई है।' अगर यह पढ़ाया जाना सही है, तब सत्ताधारियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाले कार्टूनों को बैन करना कैसे जायज है?
इसी कड़ी में कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की किताब के भी एक-दो उदाहरणों का मुलाहिजा फरमा लीजिए। किताब का शीर्षक है, आजादी के बाद की भारतीय राजनीति। इसमें पाठकों को संबोधित पत्र में कहा गया है कि यह किताब भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता को श्रद्धांजलि है और यह आकांक्षी है अपने देश के लोकतांत्रिक विमर्श को गहराने का। ...मुन्नी और उन्नी के विचारों से तुम या फिर इस किताब के लेखक सहमत हों, यह जरूरी नहीं है। लेकिन उनकी ही तरह तुम्हें भी हरेक बात पर सवाल खड़े करने की शुरुआत करनी चाहिए। ... और विमर्श को गहराने की इस ललक को किताब के पेज-दर-पेज पर संतुलित विवरण और बेहद रोचक और प्रासंगिक कार्टूनों, सार्थक फिल्मों के संक्षिप्त ब्योरों तथा अन्य उपयोगी जानकारियों की मदद से पसरता हुआ देखा जा सकता है। सब जानते हैं कि एनसीईआरटी की ये किताबें आईएएस की तैयारी करने वालों के लिए आधारिक सामग्री मानी जाती हैं। बिना कोई पक्ष लिए राजनीतिक विश्लेषण के औजार पाठक को उपलब्ध कराने जैसे अहम उद्देश्यों को बखूबी अंजाम दे पाने के कारण सारे देश में इनकी जो स्वीकार्यता है, उसे एक कार्टून के अखरने के दम पर नकारने का कदम बेहद बचकाना है।
और इस सबका आधार कौन सा तर्क है? यही कि इन किताबों में छपे कार्टूनों से बच्चों का दिमाग विषाक्त हो जाएगा। इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं हो सकता। सवाल है कि इस देश को सही दृष्टिकोण वाले, हिम्मत और सही जानकारी के साथ अपने परिवेश के बारे में निर्णय करने की क्षमता वाले युवा चाहिए या फिर केवल आंख की सीध में देखने भर की आजादी वाले मालवाहक टट्टू?
एक थी मुन्नी और एक था उन्नी। दोनों थे शैतान, खुराफाती। घुट्टी में घोटकर पिलाई गई थी शैतानी दोनों को। हर बात पर हर किस्म के सवाल करने की आदत डलवाई गयी थी बचपन से। विशेषज्ञों का मानना था, देश-दुनिया की राजनीति को ठीक से समझने के लिए खुले दिमाग की जरूरत होती है और इसलिए मुन्नी और उन्नी को इसी तरह से तैयार किया जाए कि वे हर मुद्दे पर बेहिचक सवाल उठाने का साहस कर सकें और अपने आसपास की दुनिया को देखने का स्वस्थ नजरिया हासिल कर सकें। उनके ये खिलंदड़ी तौर-तरीके रामचंद्र गुहा, कृष्ण कुमार, सुनील खिलनानी और यशपाल जैसे देश के अनेक विशेषज्ञों को भी भाए थे। हम बात कर रहे हैं एनसीईआरटी की कक्षा नौ से बारहवीं की कक्षाओं की सामाजिक विज्ञान की किताबों के दो चरित्रों की जो अपने बेहिचक सवालों से विद्यार्थियों को किसी भी मुद्दे पर कई दृष्टिकोणों से सोचने-समझने के लिए प्रेरित करते हैं।
लेकिन छह दशकों से भी अधिक उम्रदराज हमारी पकती हुई लोकतांत्रिक परंपरा के जीते-जागते प्रतीकों यानी हमारे माननीय सांसदों में से कुछ को एकाएक इलहाम हुआ कि इन किताबों में से एक में छपे कार्टून से बाबा साहब अंबेडकर का अपमान हो रहा है और उससे प्रेरणा पाकर मानव संसाधन विकास मंत्री, कानूनविद कपिल सिब्बल की अप्रतिम मानवीय संवेदनाओं से भरपूर प्रतिभा ने मुन्नी और उन्नी की इस सवाल खड़े करने की आदत को अकाल मौत देने का इंतजाम करने की ठान ली। लगभग हर दल के सांसदों ने जिस तरह एकमत से इस कदम को सही ठहराया, उसने देश के सामने बेहद गंभीर सवाल फिर से खड़े किए हैं।
इस देश के युवा होते किशोर-किशोरियों को राजनीतिक प्रक्रिया और देश-दुनिया की वर्तमान राजनीति को समझने की जरूरत और आजादी है कि नहीं? मुद्दों की गहराई में जाए बिना और टोकनिज्म के आधार पर हमारे राजनेताओं को देश की शिक्षा के तौर-तरीकों और उसके कंटेंट संबंधी निर्णय देश पर थोपने की कितनी आजादी है? लंबी विचार प्रक्रिया और देश के अनके सम्मानित समाज शास्त्रियों, राजनीतिक अध्येताओं, शिक्षाविदों के विचार मंथन और अनुमोदन के आधार पर तैयार हुई एनसीईआरटी की इन किताबों में अचानक फेरबदल करने के बारे में खुली बहस की जरूरत है कि नहीं?
आगे बढ़ने से पहले पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित कार्टूनिस्ट मैट डेवीज़ का एक कथन जान लीजिए, 'जो देश के लिए खराब होता है, वही एक कार्टूनिस्ट के लिए अच्छा मसाला होता है।' तो जो देश के लिए अच्छा नहीं है, उसे जानने का अधिकार देश के युवा होते किशोर को है कि नहीं?
अब ले चलते हैं मेजों की थपथपाहट के संगीत के साथ बैन की गई एनसीईआरटी की किताबों के कंटेंट की ओर। सत्ता का बंटवारा, सरकारों का संघीय चरित्र, लोकतंत्र और विविधता, राजनीतिक दल जैसे मुद्दों की समझ से गुजर कर जब कक्षा दस का एक विद्यार्थी लोकतंत्र की उपलब्धियां पढ़ने के स्तर पर पहुंचता है, तो उसे किताब के पेज 98 पर पढ़ने को मिलता है- 'यह तथ्य, कि लोग शिकायत कर रहे हैं अपने आप में सुबूत है इस बात का कि लोकतंत्र सफल हो रहा है। यह दर्शाता है कि जनता में जागरूकता आई है और सत्ताधारियों को आलोचक की निगाह से देखने तथा उनसे हक मांगने की काबिलियत भी उसमें आई है।' अगर यह पढ़ाया जाना सही है, तब सत्ताधारियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाले कार्टूनों को बैन करना कैसे जायज है?
इसी कड़ी में कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की किताब के भी एक-दो उदाहरणों का मुलाहिजा फरमा लीजिए। किताब का शीर्षक है, आजादी के बाद की भारतीय राजनीति। इसमें पाठकों को संबोधित पत्र में कहा गया है कि यह किताब भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता को श्रद्धांजलि है और यह आकांक्षी है अपने देश के लोकतांत्रिक विमर्श को गहराने का। ...मुन्नी और उन्नी के विचारों से तुम या फिर इस किताब के लेखक सहमत हों, यह जरूरी नहीं है। लेकिन उनकी ही तरह तुम्हें भी हरेक बात पर सवाल खड़े करने की शुरुआत करनी चाहिए। ... और विमर्श को गहराने की इस ललक को किताब के पेज-दर-पेज पर संतुलित विवरण और बेहद रोचक और प्रासंगिक कार्टूनों, सार्थक फिल्मों के संक्षिप्त ब्योरों तथा अन्य उपयोगी जानकारियों की मदद से पसरता हुआ देखा जा सकता है। सब जानते हैं कि एनसीईआरटी की ये किताबें आईएएस की तैयारी करने वालों के लिए आधारिक सामग्री मानी जाती हैं। बिना कोई पक्ष लिए राजनीतिक विश्लेषण के औजार पाठक को उपलब्ध कराने जैसे अहम उद्देश्यों को बखूबी अंजाम दे पाने के कारण सारे देश में इनकी जो स्वीकार्यता है, उसे एक कार्टून के अखरने के दम पर नकारने का कदम बेहद बचकाना है।
और इस सबका आधार कौन सा तर्क है? यही कि इन किताबों में छपे कार्टूनों से बच्चों का दिमाग विषाक्त हो जाएगा। इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं हो सकता। सवाल है कि इस देश को सही दृष्टिकोण वाले, हिम्मत और सही जानकारी के साथ अपने परिवेश के बारे में निर्णय करने की क्षमता वाले युवा चाहिए या फिर केवल आंख की सीध में देखने भर की आजादी वाले मालवाहक टट्टू?