आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी वैश्विक स्तर की तो होनी ही चाहिए। मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिये गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास-21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की पोल खोलकर रख दी है।
रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च शिक्षा के मामले में भारत 48 वें स्थान पर है। दुनिया के जाने-माने 21 विश्वविद्यालयों के इस संगठन के आकलन के अनुसार, पहले नंबर पर अमेरिका, दूसरे नंबर पर स्वीडन और तीसरे नंबर पर कनाडा है। इस सूची में भारत का स्थान ब्रिक देशों यानी ब्राजील, रूस और चीन, में भी सबसे अंत में आता है।
इस रिपोर्ट के बहाने भारतीय उच्च शिक्षा के हालात की मीमांसा करने के पहले हमें जान लेना चाहिए कि यूनिवर्सिटास ने किन-किन आधारों पर यह रिपोर्ट तैयार की है। इस सर्वे में उच्च शिक्षा में युवाओं की हिस्सेदारी, 24 साल से अधिक उम्र वाले युवाओं की औसत योग्यता और 25-64 साल के बीच की उम्र वालों के बीच बेरोजगारी दर को आधार बनाया गया है। जिस देश में 22 करोड़ विद्यार्थी स्कूली शिक्षा ले रहे हों और उनमें से सिर्फ एक करोड़ 60 लाख युवाओं को ही उच्च शिक्षा में दाखिला मिल पाता हो, वहां उच्च शिक्षा में दाखिले के आधार पर देश को पिछड़ना ही है।
फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस देश में हर साल तीस लाख विद्यार्थी ग्रेजुएट बन रहे हों और उनमें से महज तीन लाख को अच्छी नौकरियां मिल पाती हों, वहां उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ सकता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि करीब सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले बच्चों में से सिर्फ एक फीसदी ही अच्छी नौकरियों के हकदार हैं। बाकी 99 प्रतिशत के लिए तो तेजी से बदलते रोजगार परिदृश्य में अवसर घटते ही जा रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ेगा?
इसलिए यूनिवर्सिटास के निष्कर्षों से सहमत होने के बावजूद असहमति के कम से कम ये आधार तो हैं ही। हां, देश में शोध की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जा सकते हैं। देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में शोध का मतलब सिर्फ ज्ञान और सूचनाओं को उलथा करना भर रह गया है। शिक्षा पर अब भी सकल घरेलू उत्पाद का चार फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया जा रहा। पिछले कुछ वर्षों से सरकार हालांकि बजट पेश करते वक्त शिक्षा पर जीडीपी का छह और स्वास्थ्य पर ढाई फीसदी खर्च करने का दावा करती तो है। लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा हो नहीं पा रहा। जबकि चीन ने शिक्षा पर अपनी जीडीपी का चार फीसदी खर्च कर अपने शिक्षा तंत्र की हालत भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में बेहतर जरूर बना ली है।
बेशक हम शिक्षा में अमेरिका जितना खर्च नहीं कर सकते। लेकिन अपने प्रतिभाशाली युवाओं को सहारा तो दे ही सकते हैं। लेकिन जब से शिक्षा को निजी हाथों में सौंपा जाना शुरू हुआ है, सरकारी उच्च शिक्षा भी महंगी हुई है। नतीजा यह है कि 75 फीसदी विद्यार्थियों के पास कॉलेज की फीस जमा करने के पैसे नहीं होते। फिर पारिवारिक मजबूरियों की वजह से अनेक युवाओं को स्कूली शिक्षा पूरी करते ही छोटी-मोटी नौकरियां करनी पड़ जाती हैं। आजादी से पहले देश में महज 20 विश्वविद्यालय और 500 कॉलेज थे। तब पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इस देश का हिस्सा थे। आज देश में 545 विश्वविद्यालय और 45,000 कॉलेज हैं, और उच्च शिक्षा की स्थिति संतोषजनक नहीं है।
यह सच है कि आर्थिक तरक्की के चलते एक वर्ग ऐसा जरूर पैदा हुआ है, जिसके पास अपने बच्चों को ऊंची और महंगी तालीम दिलाने के लायक पैसा है। तो क्या यह माना जाए कि यूनिवर्सिटास ने अपने नतीजे के लिए जान-बूझकर ऐसे-ऐसे आधार जोड़े, जिससे तीसरी दुनिया के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग कमतर दिखाकर वहां के धनाढ्य विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित किया जाए?
आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी वैश्विक स्तर की तो होनी ही चाहिए। मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिये गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास-21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की पोल खोलकर रख दी है।
रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च शिक्षा के मामले में भारत 48 वें स्थान पर है। दुनिया के जाने-माने 21 विश्वविद्यालयों के इस संगठन के आकलन के अनुसार, पहले नंबर पर अमेरिका, दूसरे नंबर पर स्वीडन और तीसरे नंबर पर कनाडा है। इस सूची में भारत का स्थान ब्रिक देशों यानी ब्राजील, रूस और चीन, में भी सबसे अंत में आता है।
इस रिपोर्ट के बहाने भारतीय उच्च शिक्षा के हालात की मीमांसा करने के पहले हमें जान लेना चाहिए कि यूनिवर्सिटास ने किन-किन आधारों पर यह रिपोर्ट तैयार की है। इस सर्वे में उच्च शिक्षा में युवाओं की हिस्सेदारी, 24 साल से अधिक उम्र वाले युवाओं की औसत योग्यता और 25-64 साल के बीच की उम्र वालों के बीच बेरोजगारी दर को आधार बनाया गया है। जिस देश में 22 करोड़ विद्यार्थी स्कूली शिक्षा ले रहे हों और उनमें से सिर्फ एक करोड़ 60 लाख युवाओं को ही उच्च शिक्षा में दाखिला मिल पाता हो, वहां उच्च शिक्षा में दाखिले के आधार पर देश को पिछड़ना ही है।
फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस देश में हर साल तीस लाख विद्यार्थी ग्रेजुएट बन रहे हों और उनमें से महज तीन लाख को अच्छी नौकरियां मिल पाती हों, वहां उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ सकता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि करीब सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले बच्चों में से सिर्फ एक फीसदी ही अच्छी नौकरियों के हकदार हैं। बाकी 99 प्रतिशत के लिए तो तेजी से बदलते रोजगार परिदृश्य में अवसर घटते ही जा रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ेगा?
इसलिए यूनिवर्सिटास के निष्कर्षों से सहमत होने के बावजूद असहमति के कम से कम ये आधार तो हैं ही। हां, देश में शोध की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जा सकते हैं। देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में शोध का मतलब सिर्फ ज्ञान और सूचनाओं को उलथा करना भर रह गया है। शिक्षा पर अब भी सकल घरेलू उत्पाद का चार फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया जा रहा। पिछले कुछ वर्षों से सरकार हालांकि बजट पेश करते वक्त शिक्षा पर जीडीपी का छह और स्वास्थ्य पर ढाई फीसदी खर्च करने का दावा करती तो है। लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा हो नहीं पा रहा। जबकि चीन ने शिक्षा पर अपनी जीडीपी का चार फीसदी खर्च कर अपने शिक्षा तंत्र की हालत भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में बेहतर जरूर बना ली है।
बेशक हम शिक्षा में अमेरिका जितना खर्च नहीं कर सकते। लेकिन अपने प्रतिभाशाली युवाओं को सहारा तो दे ही सकते हैं। लेकिन जब से शिक्षा को निजी हाथों में सौंपा जाना शुरू हुआ है, सरकारी उच्च शिक्षा भी महंगी हुई है। नतीजा यह है कि 75 फीसदी विद्यार्थियों के पास कॉलेज की फीस जमा करने के पैसे नहीं होते। फिर पारिवारिक मजबूरियों की वजह से अनेक युवाओं को स्कूली शिक्षा पूरी करते ही छोटी-मोटी नौकरियां करनी पड़ जाती हैं। आजादी से पहले देश में महज 20 विश्वविद्यालय और 500 कॉलेज थे। तब पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इस देश का हिस्सा थे। आज देश में 545 विश्वविद्यालय और 45,000 कॉलेज हैं, और उच्च शिक्षा की स्थिति संतोषजनक नहीं है।
यह सच है कि आर्थिक तरक्की के चलते एक वर्ग ऐसा जरूर पैदा हुआ है, जिसके पास अपने बच्चों को ऊंची और महंगी तालीम दिलाने के लायक पैसा है। तो क्या यह माना जाए कि यूनिवर्सिटास ने अपने नतीजे के लिए जान-बूझकर ऐसे-ऐसे आधार जोड़े, जिससे तीसरी दुनिया के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग कमतर दिखाकर वहां के धनाढ्य विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित किया जाए?