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पाठ्यपुस्तकों में क्यों हो कार्टून
Vinit Narain
Updated Fri, 18 May 2012 12:00 PM IST
एनसीईआरटी की पुस्तक में छपे कार्टून पर हुए सियासी विवाद के बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने पुस्तकों से सभी कार्टूनों को हटाने का निर्देश देने के साथ पूरे मामले की जांच व दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया है। इस फैसले को शिक्षा के क्षेत्र में अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जेएस राजपूत से इस विवाद पर बृजेश सिंह ने बातचीत की।
एनसीआरटीई की पुस्तक में छपे कार्टून पर विवाद को आप किस रूप में देखते हैं?
मेरा मत है कि पाठ्यपुस्तक, रैपिड रीडर तथा मनोरंजन संबंधी किताबों में अंतर होना चाहिए। आज कार्टून टेलीविजन से लेकर अन्य माध्यमों तक विविध रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जो लोग पश्चिम से अभिभूत हैं, वे कार्टून से बहुत प्रभावित हैं। पाठ्य पुस्तकों में कार्टून छापना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता। जहां तक विवादित कार्टून की बात है, तो वह 1949 में भले सही रहा हो, लेकिन आज उस रूप में इसे नहीं देखा सकता। सभी को पता है कि संविधान निर्माताओं में कितने तपे-तपाए लोग शामिल थे। संविधान को आज के संदर्भ में घोंघा जैसा बताना कैसे उचित कहा जा सकता है? संविधान व उसके निर्माताओं के प्रति यह कार्टून बच्चों में अच्छी छवि नहीं बनाता।
क्या नेताओं के दबाव में कार्टून को हटाने का फैसला सही है?
यह मामला संसद तक जाना ही नहीं चाहिए था। जब एनसीईआरटी को इस बारे में पहली शिकायत मिली, तभी उसे अपने स्तर पर इसे हटाने का निर्णय ले लेना चाहिए था। लेकिन ऐसा न कर पुस्तक लेखन से जुड़े लोगों ने खुद को सही साबित करने का प्रयास किया।
इस फैसले को शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप बताया जा रहा है। आप क्या कहना चाहेंगे?
इस घटना पर जो कथित उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष लोग ज्यादा शोर मचा रहे हैं, उन्होंने ही एनडीए की सरकार के समय एनसीईआरटी द्वारा तैयार नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क का राजनीतिक कारणों से विरोध किया था। यही नहीं, यूपीए की सरकार बनने पर उन्होंने पुराने पाठ्यक्रम को निरस्त कराने के साथ ही पुस्तकें भी बदलवा दीं। उस समय लिखी गई पुस्तकों का न केवल राजनीतिक कारणों से जमकर विरोध किया गया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक मामले को ले जाया गया। रही बात शिक्षा में राजनीति के दखल की, तो वर्तमान में इससे बचा नहीं जा सकता। शिक्षा के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण कैब कमेटी के 34 सदस्यों को केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री नामित करता है। एनसीईआरटी के निदेशक से लेकर बोर्ड के सदस्य तक की नियुक्ति मंत्री करता है। ऐसे में शिक्षा संबंधी फैसलों में राजनीतिक प्रभाव लाजिमी है।
मानव संसाधन विकास मंत्री ने दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है। आप किसे दोषी मानते हैं?
यह सरकार की एक और बड़ी भूल होगी। यह ध्यान रखना होगा कि 2004 के बाद एनसीईआरटी की पुस्तकों के लिखने का दायित्व अर्जुन सिंह के समय में कथित धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और वामपंथी लोगों को दिया गया। इन लोगों ने तमाम एनजीओ व मीडिया से जुड़े लोगों को भी अपने साथ जोड़ लिया। पुस्तक लेखन के लिए नियुक्त शिक्षकों को इस दौरान दरकिनार कर दिया गया। उनकी भूमिका केवल पुस्तक कमेटी से जुड़े बाहरी लोगों के सेवा-सत्कार तक सीमित रखी गई। मंत्री महोदय को इन सारी स्थितियों की जांच करानी चाहिए।
सरकार ने एनसीआरटीई की पुस्तकों में छपे सभी कार्टूनों की समीक्षा कराने का आदेश दिया है। क्या यह सही है?
मेरा मानना है कि यह समस्या का अधूरा समाधान है। यदि इन पुस्तकों की पाठ्यवस्तु की भी समीक्षा कराई जाए, तो बहुत-सी खामियां सामने आएंगी, जिनसे सरकार भविष्य में ऐसे किसी विवाद से बच सकती है। इससे पुस्तक लिखने वालों की वर्चस्व बनाए रखने की मंशा को भी सरकार जान पाएगी।
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