कर्नाटक दक्षिण भारत का एक बेहद खूबसूरत सूबा जो अपनी प्राकर्तिक सुंदरता, ऐतिहासिक परंपराओं और एक भव्य सांस्कृतिक विरासत के लिए दुनियाभर में मशहूर है। देश की सिलीकान वैली का ख़िताब भी कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु को ही मिलता है। इस राज्य के बारे में जितनी पढ़ो उतना कम लगता है। बात क्योंकि चुनावों की है तो यहां की गुणा-गणित समझ लेना जरूरी है।
कर्नाटक की दो सबसे बड़ी जातियां अब सबसे बड़ी नहीं रही हैं। इस लीक रिपोर्ट के मुताबिक लिंगायत समाज 17 से घटकर करीब 10%, वोक्कालिंगा 11 से कम होकर 8% रह गए हैं, और राज्य में दलित सबसे बड़ी ताकत बन कर उभरे हैं। इनकी संख्या 19 से बढ़कर 24 फीसदी हो गई है। मुस्लिम- 12.5%, एसटी- 7%, ओबीसी- 7% हैं, इसलिए इस बार फिर कांग्रेस AHINDA कार्ड खेलने की तैयारी कर रही हे। AHINDA दरअसल कन्नड़ में शार्टफार्म है- दलित, अल्पसंख्यक और ओबीसी का… यानी मोटा-मोटा समझें तो नॉन लिंगायत, नॉन वोक्कालिंगा, नॉन ब्राह्मण वोटबैंक को आप AHINDA कह सकते हैं, जो करीब-करीब 74% से ज़्यादा हैं।
ये इसी फार्मूले की करामात थी कि 2018 चुनाव में कांगेस को बीजेपी से सीटें भले ही कम मिलीं लेकिन वोट परसेंटेज के मुकाबले में वो बीजेपी से आगे रही। बीजेपी को 104 सीटें और 36.35% वोट मिले, जबकि कांग्रेस को वोट तो मिले 38.14% लेकिन सीटें मिली 78 ही। वहीं जेडीएस को 18.3% के साथ 37 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा। लेकिन एक साल बाद ही 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी की आंधी ने विरोधियों के पैरों के नीचे की जमीन हिला दी।
राज्य की 28 में से 25 लोकसभा सीटें बीजेपी जीती और वो 224 में से 170 विधानसभाओं में लीड कर रही थी, वहीं कांग्रेस और जेडीएस को मात्र एक-एक लोकसभा सीट से संतोष करना पड़ा। कांग्रेस 36 विधानसभाओं और जेडीएस 10 विधानसभाओं में ही लीड ले पाई।
कर्नाटक को बीजेपी के लिए दक्षिण का द्वार कहते हैं, साउथ इंडिया का पहला राज्य है कर्नाटक जहां बीजेपी सरकार बना पाई थी। 90 के दशक में मंदिर आंदोलन के बाद से बीजेपी का ग्राफ करीब-करीब बढ़ता ही रहा है। 1989 में 4 सीटों वाली बीजेपी को 1994 में 40, 1999 में 44, 2004 में 79 (उन्नासी), 2008 में 110 सीटें मिलीं और पूर्ण बहुमत के साथ पार्टी स्टार बीएस येदियुरप्पा सीएम बने।
पांच साल में तीन सीएम बदल चुकी बीजेपी को 2013 के विधानसभा चुनावों में एंटी-इंकबेंसी का सामना करना पड़ा और बीजेपी की 40 सीटें ही आई थीं, जो 2018 में मोदी के पीएम बनने के बाद जबरदस्त बढ़ी और ये आंकड़ा 104 तक पहुँचा था। बीते 5 सालों में पहले येदियुरप्पा, फिर कुमारस्वामी, फिर येदियुरप्पा और अब बोम्मई सीएम बन चुके हैं, यानी राज्य में त्रिकोणीय मुक़ाबला होने कारण सत्ता का हस्तांतरण कभी आसान नहीं रहा।
80 के दशक तक पार्टी की तूती बोलती थी। लेकिन समाजवादी आंदोलन का हिस्सा रहे रामकृष्ण हेगड़े के जनता दल के उदय और फिर देवेगौड़ा के जेडीएस के बनने से कांग्रेस का नुकसान शुरू हो गया और फिर 90 के दशक में बीजेपी के प्रादुर्भाव ने कांग्रेस को और हाशिये पर डाल दिया, लेकिन कांग्रेस ने बुरे से बुरे वक्त में भी 26 फीसदी से कम वोट कभी नहीं पाए।
अब अगर मुद्दों की बात की जाए तो बीजेपी के पास विकास, लाभार्थी, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का ऐसा समागम है जिसका काट विपक्ष के पास अभी तक नहीं दिखता। इसके अलावा पार्टी के दूसरी पंक्ति के नेताओं ने हिजाब-बुर्का, हनुमान-जन्मभूमि, राम मंदिर, पीएफआई, टीपू सुल्तान, परिवारवाद जैसे मामले गरमाने शुरू कर दिए हैं। साथ ही सीएम बोम्माई लिंगायतों के पंचमसाली समुदाय को आरक्षण का सपना दिखा चुके हैं, हालांकि मामला कोर्ट में चला गया है। लेकिन अब तो लग रहा है कि कर्नाटक में भारत जोड़ों यात्रा की सफलता का दावा करने वाली कांग्रेस को घेरने के लिए बीजेपी राहुल गांघी की विवादित लंदन यात्रा को गरमाए रखाना चाहती है।
कांग्रेस के पास बीजेपी को घेरने के लिए भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों की हमदर्द पार्टी, बोम्मई सरकार पर लगाए गए आरोप और पुरानी पेंशन स्कीम के मुद्दे रहेंगे। साथ ही पार्टी के अध्यक्ष कर्नाटक से हैं। मल्लिकार्जुन खड़े के लिए ये पहली बड़ी और कड़ी परीक्षा है। लेकिन राज्य में कावेरी जल विवाद, महाराष्ट्र के साथ सीमा और भाषा विवाद, बेलगवी का मामला और कन्नड़ बनाम हिंदी का विवाद ऐसे मामले हैं जो राज्य की जनता से सीधे जुड़े हैं पर इन पर दोनों में से कोई भी राष्ट्रीय पार्टी स्टैंड लेने से बचती है।
वैसे दोनों ही खेमों में गुटबाजी जमकर है। बीजेपी लिंगायतों पर भरोसा कर रही है। जेडीएस वोक्कालिंगो और कांग्रेस AHINDA वोटों के ध्रुवीकरण पर। सीएम बोम्मई हाल के चुनावों में बीजेपी की किरकिरी होने से बचा नहीं पाए हैं। एमएलसी और दो उपचुनावों में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है। सियासत के जानकार मानते हैं कि बीजेपी ने इसी डर से बीबीएमपी यानी बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका के चुनाव नहीं कराए।
दूसरी तरफ विपक्ष के वोट में बंटवारे का भी खतरा है क्योंकि कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय से भी ज़्यादा टफ होने को है, क्यों ओवैसी की एआईएमआईएम और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के अलावा शिवसेना एनसीपी भी मुकाबले में कूदकर बीजेपी का काम आसान कर सकती हैं।
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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदाई नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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