Hindi News
›
Columns
›
Blog
›
coronavirus covid 19 lockdown impact effect on education system migrant labourers
{"_id":"5eceb6aeaf25760b94701ee4","slug":"coronavirus-covid-19-lockdown-impact-effect-on-education-system-migrant-labourers","type":"feature-story","status":"publish","title_hn":"कोविड-19 और लॉकडाउन का 1 साल: कोरोना की दूसरी लहर में कैसी होगी स्कूली शिक्षा?","category":{"title":"Blog","title_hn":"अभिमत","slug":"blog"}}
कोविड-19 और लॉकडाउन का 1 साल: कोरोना की दूसरी लहर में कैसी होगी स्कूली शिक्षा?
कोरोना गया नहीं है, लेकिन महामारी के खतरे के बीच कैसे चलेंगे स्कूल?
- फोटो : अमर उजाला
Link Copied
कोरोना की आहट फिर सुनाई देने लगी है। महाराष्ट्र, केरल, गुजरात जैसे राज्यों से आ रहे आंकड़े चिंता का सबब है। लॉक डाउन का डर जनता में फैल रहा है। सबसे बड़ी चिंता स्कूलों की है। तकरीबन 1 साल से ज्यादा समय हो रहा है जब देशभर के स्कूल बंद हैं, जो खुले और खुलने की योजना में थे वहां भी कोरोना के संक्रमण ने दहशत को पैदा कर दिया है। जाहिर है ऐसे में घरों में ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे बच्चों की शिक्षा और उनके मानसिक विकास को लेकर सरकार को सोचना भी चाहिए और नई वैकल्पिक व्यवस्था को बनाने की ओर विचार भी करना चाहिए।
24 मार्च 2020 को भारत में कोरोना के कारण पहली तालाबंदी की घोषणा की गई। इस बीच कोरोना, एक वैश्विक महामारी के तौर पर तो सामने आया ही, साथ ही साथ इसके आर्थिक और सामाजिक पहलू भी खुल कर सामने आए। तालाबंदी के दौरान, असमानता की छिपी हुई दरारेंं एक दम उभर कर जैसे और गहरी हो गईंं।
स्वास्थ्य के अलावा भूख, रोज़गार, प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा, डॉक्टर्स को उपलब्ध सुरक्षा किट्स एवं उनकी सुरक्षा, ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो लगातार मीडिया में जगह पा रहे हैं।
इस पूरी चर्चा में एक जो एक बड़ा सवाल गायब हैं, वो है शिक्षा और शिक्षा के अधिकार का सवाल। कोरोना और कोरोना के पश्चात बच्चो की शिक्षा का स्वरूप कैसा दिखेगा, ये सोचने का विषय हैं।
मानव संसाधन मंत्रालय की 2016-17 रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत के विद्यालय जाने वाले बच्चों में 11.3 करोड़ बच्चें (65 %) आज भी जन-विद्यालयों में अपनी शिक्षा ग्रहण करते हैं।
कुछ विरले अपवादों को को छोड़ देंं तो आज भी इन विद्यालयों में पढ़़ने वाले छात्र-०छात्रा ऐसे परिवार से आते हैं जो आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कही पीछे छूट गए हैं। कोरोना का इनपरिवारों पर प्रभाव, इनके बच्चों की शिक्षा की दिशा तय करेगा।
विज्ञापन
कोरोना महामारी ने हमारी शिक्षा व्यवस्था और स्कूलों को प्रभावित किया है।
- फोटो : PTI
जन विद्यालयों में पढ़़ने वाले बच्चों के माता-पिता अधिकतर दैनिंक मजदूरी, खेती या फिर लघु स्तर पर असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
कोरोना के कारण उनके रोज़गार और आय पर प्रभाव पड़ेगा। बहुत बड़ा वर्ग जो शहरोंं से वापस अपने गांंव लौटगा, तो बच्चों के ड्राप आउट होने की संभावना बढ़ेगी।
तालाबंदी खुलने पर परिवारों की आर्थिक स्थिति पर गंभीर प्रभाव के कारण, बच्चों को आय के स्त्रोत के रूप में देखे जाने को, उनकी शिक्षा के ऊपर प्राथमिकता मिलेगी, और ड्राप आउट संख्या में इजाफा होगा। इसमें भी लड़कियों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य को लड़़कोंं के बनिस्पत तरजीह मिलने की संभावना कम हैं।
इस समय घरों के अन्दर किशोरियों की सुरक्षा और उनके प्रजनन स्वास्थ पर भी फर्क पड़ेगा। ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं के मुताबिक़ तालाबंदी के समय में महिलाओं और किशोरियों पर घरेलू और यौनिक हिंसा की संख्या में भी इज़ाफा आया है और प्रजनन स्वास्थ् तो अभी भी घरों में फुसफुसाहट का विषय है।
विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा पर एक बड़ा सवालिया निशान हैं। जहांं एक ओर समाज में उन्हें बड़े स्तर पर बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और उनके शिक्षा का अधिकतर कार्य विशेष शिक्षिकाओं द्वारा बहुत ही निजी स्तर पर होता है, ऐसे समय में उनकी शिक्षा कही हाशिये पर चली जाती हैं।
भारत का एक और वर्ग जो कही कागजों में दिखाई नहीं पड़ता वो है प्रवासी मजदूर, जो आज भी कांट्रेक्टर और राजनीतिक वर्ग की अकर्मण्यता के शिकार होते हैं।
जनसाहस के द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक कंस्ट्रक्शन के कार्य में लगे हुए 5 करोड़ 50 लाख श्रमिकों में से 5 करोड़ 10 लाख आज भी रजिस्टर्ड नहीं हैं और सरकार द्वारा चलाई जा रही राहत स्कीमोंं का हिस्सा नहींं बन सकते। ऐसे में उनके बच्चों की शिक्षा तो छोड़़ि़ए उनके अपने अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
तालाबंदी के समय हमें शिक्षा को जारी रखने का जो सबसे पहला उपाय जो सुझाया जा रहा हैं वो है डिजिटल माध्यम से शिक्षा।
2018 में किए गए एक सर्वे के अनुसार भारत में स्मार्ट फोन धारकोंं की संख्या सिर्फ 24% हैं और इसमें भी महिलाओं और पुरुष के बीच 19% का अंतर हैं (पुरुष 34%, महिलाएं- 15%) । तो डिजिटल शिक्षा पर पूर्णत: इस हालत में निर्भर नहीं रहा जा सकता।
शिक्षा सत्याग्रह की मुहिम के तहत ज़मीनी स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं और लोगों के साथ किए गए संवाद में ज़रूरी सुझाव निकल कर आए, जो हैं:
राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक आपातकाल शिक्षण समिति का निर्माण जिसमेंं शिक्षिकाओं, शिक्षण अधिकारियों, शिक्षाविदों और सामाजिक संस्थाओं का प्रतिनिधित्व हों और जो कोरोना के प्रभाव का आंंकलन करे और इसके तहत रणनीती तैयार करे।
बच्चों के लिए मुफ्त हेल्पलाइन चलाए जाएंं जो उनके और उनके परिवारों की शिक्षा और स्वास्थ (शारीरिक और मानसिक) से जुड़े मुद्दों पर मार्गदर्शन करेंं। इसमें प्रशिक्षित शिक्षिकाओं, सामाजिक संस्थानों, विशेष शिक्षिकाओं और काउंसलरो को भी साथ जोड़ा जाए ।
ऐसे हालत में जब देश का एक बड़ा वर्ग डिजिटल माध्यम से शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकता, इसे एक मात्र उपाय न समझा जाए।
अगर डिजिटल माध्यम एकमात्र माध्यम बन कर रह गया, तो बहुत बड़ा वर्ग इसका प्रयोग नही कर पाएगा। इसकी उपलब्धता और प्रशिक्षण को लेकर बड़े स्तर पर मुहीम चलाई जाए जिसमेंं इसकी ढांचागत व्यवस्था को स्थापित किया जाए और इसे अधिकार की श्रेणी में लाया जाए।
मिड डे मील एक उपलब्ध व्यवस्था है जिसके माध्यम से लाभार्थी परिवारों तक राशन, लड़कियों के लिए सेनेटरी नैपकिन, आवश्यक पोषण की दवाइयां घरो तक उपलब्ध कराई जाए।
अगर बच्चे विद्यालय तक नहीं पहुंंच पा रहे हैं, तो विद्यालय बच्चों तक पहुंचे। इसमें शिक्षा को विकेन्द्रित रूप से देखना आवश्यक हैं।
गली, मोहल्ले, पंचायत, ग्राम के स्तर पर मिड डे मील के राशन की ही भांति पाठ्य सामग्री नियमित अन्तराल पर बच्चों तक पहुंचाई जाए। इसमें देह की दूरी के नियमों का पालन करते हुए, छोटे-छोटे सत्र विकेन्द्रित ढंग से चलाए जाएं। इसमें सामाजिक संगठनोंं को भी मुहिम से जोड़ा जा सकता है।
अगर यह तालाबंदी लम्बी चलती है या बच्चों के विद्यालय लम्बे समय तक बंद रहते हैं (जो बहुत मुमकिन हैं) तो राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय की तर्ज पर विकेन्द्रित ढंग से बच्चों के लिए पाठ्य सामग्री और परीक्षा देने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए ताकि उनका साल न बर्बाद हों ।
ऐसे समय में नई तालीम की तर्ज पर उनके पाठ्यक्रम को और उपयोगी काम से जोड़कर देखा जाए और उसके आधार पर पाठ्य सामग्री को तैयार किया जाए। इस वर्ष आंंकलन में थोड़ा लचीलापन भी दिखाया जाए।
विशेष आवश्यकता वाले छात्र-छात्राओं के लिए विशेष शिक्षक-शिक्षिकाओं की व्यवस्था हों तथा साथ साथ आवश्यक पठन सामग्री की व्यवस्था हों।
प्रवासी मजदूरों का रजिस्ट्रेशन अवश्य किया जाए और उनके बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित की जाए ।
इस सत्र में नामांकन को लेकर आवश्यक कागजों और समय सीमा में लचीलापन रखा जाए । आवश्यकता पड़ने पर अलग अलग राज्यों के बोर्ड भी आपस में सहयोग करे जिससे जो बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर लौट रहे हैं उनके परिवारों को सहूलियत मिले ।
कोरोना के समय में हमारी शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य ढांचागत सुविधाओं को लेकर कमजोरियां और मुखर हों खुल कर आ रही हैं। ये एक मौका है शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार के सवाल को वापस पटल पर लाने का। और जब हम इसका प्रारूप निर्धारित करे तो गांधी का तलिस्म याद रखेंं।
अपने ज़ेहन में हमारे समाज के सबसे कमज़ोर और शोषित मनुष्य का चेहरा याद रखेंं, तभी ये एक सार्थक प्रयास होगा और भारत अपने संविधान और अपने अस्तित्व के साथ न्याय कर पाएगा।
वैभव कुमार शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही संस्था स्वतालीम के सह-संस्थापक और शिक्षा सत्याग्रह मुहिम में स्वयं-सेवक हैं। वे पिछले 7 वर्षों से स्कूली शिक्षा को लेकर सीखने–सिखाने की दिशा में काम कर रहे हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
एड फ्री अनुभव के लिए अमर उजाला प्रीमियम सब्सक्राइब करें
अतिरिक्त ₹50 छूट सालाना सब्सक्रिप्शन पर
Next Article
Disclaimer
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।