भीष्म साहनी की कहानियां अपने समय के जीवन व समाज की मानसिकता को उजागर करती हैं। यह मानसिकता एक ओर विभाजन की त्रासदी से बिखरे हुए भारतीय परिवेश को समझने की रही तो दूसरी ओर उससे उत्पन्न तनाव और मानसिक द्वंद्व को सामने लाने की। क्योंकि विभाजन ने केवल दो सीमाओं को ही नहीं बांटा था। बल्कि उसने इंसानियत को भी हिंदू और मुस्लिम दो अपरिचित चेहरों में तब्दील कर दिया था। इसकी छाप केवल विभाजन से पीड़ित लोगों पर नहीं देखी गई बल्कि बच्चों पर अधिक गहरी रही। भीष्म साहनी की कहानियों में बच्चे मनोवैज्ञानिक तौर पर अपने परिवेश व समाज की वास्तविकता का बोध कराते हैं। वास्तविकता का संदर्भ धर्म की सामाजिक रूढ़ मान्यताओं से रहा है, धर्म को जिसने संकीर्ण परिभाषा में बांधा।
पहला पाठ कहानी का पात्र देवव्रत है जिसके संदर्भ में भीष्म साहनी कथावाचक की शुरूआती भूमिका में बताते हैं।’ब्रह्मचारी देवव्रत की शिक्षा-दीक्षा पुस्तकों द्वारा कम और चांटो से अधिक हुई थी। यो तो शायद सभी लोग जिंदगी के सबक चांटो द्वारा ही सीखते हैं, पुस्तकों और ज्ञान गोष्ठियों द्वारा कम, वह न केवल उसके मस्तिष्क में ही बल्कि उसकी आत्मा पर भी अमिट छाप छोड़ गई’। आगे वह लिखते हैं कि उसकी सबसे ’पहली शिक्षा उसे हिंदुत्व प्रेम की मिली, उस समय वह केवल आठ-नौ वर्ष का तरुण बालक था और अपने शहर के पास एक गुरुकुल का विद्यार्थी था’।
बालमन अपनी चंचलताओं और सवालों के लिए जाना जाता है। जिज्ञासा का भाव जिसमें बहुत गहरे से भरा होता है। यह जिज्ञासा उसके स्वयं को लेकर भी हो सकती है और दूसरों को लेकर भी। जैसा कि गुरुकुल में शिक्षा के दौरान वानप्रस्थीजी अछूतोंद्धार विषय पर व्याख्यान देते हैं और मैजिक लैटर्न पर चित्रों का प्रयोग करते हैं। देवव्रत मन्त्र-मुग्ध उन चित्रों को देख रहा था और जब वानप्रस्थजी उसमें अछूतों के बारे में बताते है कि इन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी पीने का अधिकार नहीं था। गांव के कुओं पर उनकी छाया भी नहीं पड़ सकती। तब देवव्रत का यह सोचना कि ’तो फिर यह पानी कहां से पीते हैं? क्या वह बूढ़ा पानी नहीं पीता, इसीलिए इसकी हड्डियां निकल आई हैं’। वानप्रस्थीजी आगे बढ़ते हुए कुंए की बगल में खड़े चितकबरे कुत्ते को दिखाकर बताते हैं; मगर इन्हें पानी-पीने का अधिकार है। मगर देवव्रत अब भी उसी बूढ़े को देख रहा था। उसके बालमन में बहुत से सवाल उठ रहे थे। ’अछूत कौन होते हैं? क्या सब बूढ़े, फटे कपड़े वाले अछूत होते हैं? अछूतों को पानी क्यों नहीं मिलता ?.. देवव्रत ने कभी अछूत नहीं देखा था।
बूढ़े को देखकर उसने सोचाः इस जैसे आदमी तो मैंने बहुत देखें हैं, क्या सबके सब अछूत होते हैं?’ यह सवाल आज भी मौजूद है और बालमन में हर किसी के मन में उठता है मगर हम उस जिज्ञासा को कभी सही तरीके से शांत करने की अपेक्षा, उपेक्षा भरी दृष्टि बच्चे में भरते देखें जाते हैं । बच्चे लिए प्रत्येक संबंध प्रेम से जुड़ा होता है परंतु यहां वास्तविकता थोड़ी भिन्न नजर आती है। राह में चलते हुए जब देवव्रत को मैजिक लैटर्न के चित्रों जैसा ही दीनहीन चेहरा, वही उत्सुक तरसी हुई आंखे, वही नग्न दरिद्रता लिए बालक दिखता है। देवव्रत उस लड़के के पास जाता है।
’वह उसे छूता है और रोमांच से भर जाता है। लड़के के लिए यह अनुभूति नई थी। वह उसे गले लगाकर स्नेह से कहता है ’तू मेरा भाई है, तू अछूत है न, तू मेरा भाई है’। तभी देवव्रत को पीछे से तमांचा पड़ता है और वह हड़बड़ा जाता है। वह वानप्रस्थीजी को उस लड़के की ओर इशारा करते हुए रूआसी पर गर्वपूर्ण आवाज में बोलता है ’आचार्यजी, यह अछूत है, यह मेरा भाई है। उसे गर्व था कि वानप्रस्थीजी पंक्ति तोड़ने का दोष अछूतोंद्धार होना देखकर क्षमा कर देंगे’। मगर इस बार तमांचा सीधे मुंह पर पड़ता है । देवव्रत की सारी देह कांप उठती है ’यह अछूत है ? यह तुझे अछूत नजर आता है ? यह तो मुसलमान है और नन्हें देवव्रत की उद्भ्रांत त्रस्त आँखे, कभी वानप्रस्थीजी को और कभी उस हमजोली गरीब लड़के को देखती रह गई।
बालक की मनः स्थिति को भीष्म साहनी देवव्रत के माध्यम से उठाते हैं। वह बालक क्या जानता है अछूत होना? और क्या जाने मुसलमान होना? बावजूद इसके समाज व धर्माचार्य समाजीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत उसके बालमन को तैयार करते हैं। ऐसे में जब हम आज की घटनाओं ज्वाहर बाग (मथुरा), अखलाख की मौत, मुजफ्फरपुर दंगे जैसी घटनाओं को देखते हैं तो उनके पीछे इसी तरह का मनोविज्ञान देखने को मिलता है। जिसमें उन्हें सीखाया गया हिंदू और मुसलमान होना और यही धार्मिक संकीर्णता सांप्रदायिक वैमनस्य की जड़ का मूल कारण भी रही है। यह कहानी 1957 के संग्रह में शामिल थी और इस समय जाति व्यवस्था से अधिक घातक धार्मिक भेदभाव व हिंदू-मुस्लिम कट्टरता लोगों की रगों में व्याप्त थी। इसका उदाहरण कहानी के अंत में देवव्रत को पुनः थप्पड़ पड़ना था।
भीष्म साहनी की कहानी का दूसरा बाल चरित्र ’पाली’ है। पाली इनकी कहानी का शीर्षक भी है और पात्र भी। यह कहानी 1989 में प्रकाशित होती है। भारत विभाजन को एक लंबा समय बीत चुका है। बावजूद इसके समाज की धार्मिक मनः स्थिति में कोई बदलाव नहीं देखा गया। इसी दौर में 1974 के सिख दंगे होते हैं और बाबरी को लेकर भी एक तरह की मानसिकता तैयार होने लगती है। इसकी सर्वाधिक मार छोटा बालक ’पाली’ सहता है। वह दंगो में खो जाता है। सात सालों के बाद खोज-बीन के बाद भारत लाया जाता है। इस बीच वह मुस्लिम परिवार का हिस्सा बन चूका है। ’काफिले से दूर जैनब को पाली मिलता है। वह उसे मातृत्व की लालसा में अपनाना चाहती है। मगर मौलवी के लिए वह काफिर की औलाद है। वह कहता है ’क्या इसकी सुन्नते करवाई है, इससे कलमा पढ़वाया है’? यहाँ सोचने वाली बात है कि क्या मानवीयता धर्म से इतनी छोटी है कि उसके लिए सुन्नत किए बिना या कलमा पढ़े बगैर बच्चे को अपनाना गुनाह है। जबकि जैनब के मन में यह सवाल नहीं उभरता। क्योंकि उसके लिए धर्म से श्रेष्ठ मातृत्व है। वह कहती भी है कि ’उसे यह बालक न तो नापाक ही लगा था, न सांप का बच्चा ही’।
धर्म की यदि नई परिभाषा को आज के संदर्भ में देखा जाए तो वह खौफ है। क्योंकि धर्म का यही खौफ जैनब को बच्चे का खतना और कलमा पढ़वाने पर मजबूर करता है। दूसरी ओर हिंदू समाज में यज्ञोपवीत के जरिए शुद्धिकरण करने को। क्योंकि यह मानसिकता उस दौर के हर शख्स में मौजूद रही कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग जाति और धर्म है और दोनों का आपस में वैमनस्य है। घर वापसी के दौरान कार में समाज सेविका द्वारा पाली की सिर की टोपी को कार से बाहर फैकना और पाली के रोने को नजरअंदाज करना। धर्म की इसी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक रहा।
बावजूद इसके राजनीति से दूर आम व्यक्ति आज भी मानवीय संवेदनाओं से भरा है। पाली का नमाज पढ़ना, उसके पिता स्वभाविक क्रिया मानते हुए, स्वीकार लेते हैं और कहते हैं कि ’बच्चा है, इसे क्या मालूम। धीरे-धीरे अपने-आप समझ जाएगा’। मगर यह समाज को नापसंद रहा। उनके लिए मानवीयता से ज्यादा धर्म मूल्यवान था। इसका सीधा प्रहार बच्चे पर होता है। उसे नमाज से उठाया जाता है। ’क्या नाम है तेरा ? ’बच्चे ने भारी-भरकम चैधरी की ओर आंख उठाकर देखा और सहमी हुई आवाज में कहा ’इल्ताफ हुसैन वल्द शकूर अहमद’। चैधरी का मन हुआ, कसकर चांटा रसीद करे लड़के के मुंह पर ।...लड़के को अपनी कलाई पर उसकी मुट्ठी का दबाव भी महसूस हुआ, पर वह अभी भी कांपता हुआ सा उसके चेहरे की ओर देखें जा रहा था। नहीं, तेरा नाम पाली है ’यशपाल, लड़का चुप रहा। फिर धीरे-धीरे से बुद-बुदाया, इल्ताफ। फिर से बोल कर तो देख यह नाम, मैं तेरी जीभ खींच लूँगा’।
इस बीच पुनः शुद्धिकरण के माध्यम से एक नए बालक की निर्मिती होती है। थोड़ी देर बाद एक युवा ब्रह्मचारी के वेष में बालक यशपाल दोनों हाथ जोड़ अपने पिता के साथ सटकर द्वार के पास खड़ा घर में आए मित्र संबंधियों को विदा कर रहा था’। इस कहानी का केंद्र छोटा बालक पाली रहा जो धार्मिक संकीर्णता के माहौल के बीच डरा और सहमा हुआ देखा गया। संस्कार व्यक्ति को बनाते है या व्यक्ति संस्कारों को। आजीवन जिनके लिए वह संघर्ष करता है। उसका प्रभाव उसके जीवन की प्रत्येक गतिविधि पर रहता है। यही संस्कार वह अपने बच्चों में भी डालना चाहता है। पाप-पुण्य कहानी के पात्र मालती और काका इस मानसिकता को ग्रहण करते देखे जाते हैं। मालती जो महज 4 वर्ष की है और काका 2 वर्ष का। उनके बाल मन पर बचपन से ही सदाचार की शिक्षा का बीज डालने का काम उनके पिता करते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि ’सदाचार की शिक्षा का बीज तो बचपन ही में मस्तिष्क में पड़ जाए तो फलता है बाद में तो तरह-तरह के संस्कार अंकुर तक फूटने नहीं देते’ यहाँ सदाचार का संबंध आज्ञाकारिता से है।
मालती जब अपने पिता के अनुरूप व्यवहार करती है तो वह अच्छी बेटी के रूप में उभरती है। जबकि उससे पहले उसका सदाचार चड्डी न पहने पर और पूरे घर में नंगे घूमने पर खत्म हो जाता है। यहाँ प्रेम और अपनत्व के सहज संबंध धर्म के फेर में बदल जाते हैं। धर्म व्यक्ति को मनुष्य नहीं बनाता बल्कि आज्ञाकारी बनाता और दण्डित करता है। वह सही गलत की दृष्टि विकसित नहीं करता है। जबकि धर्म विचार है जो आपको मानवीय होना सीखाता है। भीष्म साहनी ने जहाँ अपने तीन केंद्रीय बाल चरित्रों के माध्यम तत्कालीन समाज, धर्म और मानवीयता के अंतर्द्वंद्व को उभारा है। वहीं उनकी दो कहानियां ’ललक’ और ’झरोखे’ अलग परिदृश्य को उजागर करती हैं। यह परिदृश्य वर्गीय असमानता का है। ललक कहानी 1973 में प्रकाशित ’पटरियां कहानी संग्रह’ से ली गई है। ललक कहानी का बाल पात्र निम्न मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है। बालक कहता भी है ’अव्वल तो किसी न किसी के उतरे हुए कपड़े पहनने को मिलते, ऐसा न होता तो कमीज-पजामा माँ सी देती थी। और यदि माँ बाल काट सकती तो मुझे कभी नाई के पास भी नहीं जाना पड़ता’। बच्चे में निम्नमध्यवर्गीय स्थिति से बाहर आने की झटपटाहट देखी जाती है। साहनी बच्चे की इन लालसाओं को उजागर करते हैं जहाँ वह चाहकर भी अमीर और गरीब के बीच खींची विभाजक रेखा को कम करने में असमर्थ है।
बावजूद इसके वह अपनी गरीबी के लेबल को कुछ कम करने का उपाय ढूंढ लेता है। वह उपाय है उसका दोस्त। ’मैं अपनी जूती को पानी से धोता, घर के धुले पाजामे के ऊपर ईटें रख-रखकर उसकी सलवटें निकाल लेता, बालों पर सरसों का तेल चुपड़ता, बंद गले के अपने कोट के दो बटनों के बीच पिताजी का रुमाल खोस लेता और सीधा रोशनलाल के घर की दहलीज पर जा खड़ा होता। रोशनलाल मेरा सहपाठी था और नंगा सोता था। अधेड़ उम्र की उसकी विधवा माँ, मिट्टी से पुती कोठरी में जमीन पर बैठी जब मेरी ओर देखती और हाथ बढ़ाकर कहती, ओहो, छोटे बाबूजी आज तो बड़े बन-ठनकर आये हो तो मुझे बड़ा सन्तोष होता। मेरे पास जूते थे, रोशन के पास वे भी नहीं थे, उसके पास पहनने वाले कपड़ों का भी एक ही जोड़ा था, इसीलिए वह नंगा सोता था, इस घर के सामने खड़ा मैं अमीर लगता था’। अपने से गरीब के आगे खुद को अमीर और बड़ा समझे जाने की बच्चे की मानसिकता यहाँ उजागर होती है और यह परिवेशगत है।
वह अपने अमीर सहपाठियों से दोस्ती करने का लगातार प्रयास करता देखा जाता है। अमीर कैसे होते हैं उस भाव को खोजने का प्रयास करता है। जैसा कि वह कहता है ’हरदेव का मुंह सारा वक्त खुला रहता और निचला होठ तनिक लटकता रहता। मैं भी मुह खोले घुमने लगा, ताकि मेरा होठ भी लटका रहेे, पर उसका होठ गदराया हुआ था, इस कारण लटक सकता था, जबकि मेरा होठ पतला था, तना रहता। वह हर काम धीरे-धीरे करता था, सर हिलाता तो धीरे-धीरे मुस्कराता तो धीरे-धीरे अधखुली नामदार आँखों और गदराये होठों के साथ। तभी मैंने जाना कि सच्ची अमीरी सुस्ती में पायी जाती है, हौले-हौले, उठने-बैठने में धीमें-धीमें मुस्कराने में, तैरती नजर से देखते रहने में’। वह बालक हरदेव के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है ताकि वह अपने सहपाठी हरदेव के जरिए अमीरी के अहसास को छू सके।
यह बच्चा वर्गीय असमानता से उभरी मानसिकता की उपज है। उसकी गरीबी उसका मजाक बनाती है। हरदेव की जन्मदिन की पार्टी में हॉकी मैच का आयोजन होता है। जहाँ निक्कर न होने के कारण बालक पजामा पहनकर आता है। हरदेव के घर में वह पजामा पार्टी के रूप में, बाद में पजामे वाले लंगूर के रूप में संबोधित किया जाता है। बालक इससे आहत होता है। उसका गुस्सा कमजोर अपाहिज बूढ़े पर निकलता है। वह हॉकी से उसे पीट देता है। जबकि इससे पहले भी कई बार राह में वह उस बूढ़े से मिलता रहा है। मगर आज स्थिति बदली थी। हरदेव के भाई मंगत द्वारा उसे कमजोर समझकर उसका अपमान किया गया था। गरीब और कमजोर होने के कारण उस दौरान तो वह कुछ नहीं कर पाया था। मगर बूढ़े को अपने से कमजोर जान वह उस पर अपनी दबी कुंठा को जाहिर करता है। ’तभी मैंने मंगत की सी सफाई के साथ उसके टखने पर जोर से हॉकी जमा दी और वह कराहकर जमीन पर बैठ गया’।
अपने से कमजोर को दबाए जाने की पूंजीवादी शोषण की मानसिकता ’ललक’ कहानी में उजागर होती है। क्योंकि जो तकलीफ इस वक्त बूढ़े को हो रही थी वही खेल के मैदान में बालक को होती है। मंगत जब जान-बूझकर उसे मार रहा होता है। मगर उस वक्त केवल एक ही आवाज उसके जहन तक पहुँच रही होती है ’फाऊल, फाउल, फाउल! शाबाश, शाबाश, शाबाश! खेलो, खेलो, खेलो!’ यह आवाज मंगत और हरदेव के पिता की थी। यही आवाज बूढ़े को मारने के बाद फिर से बालक के जहन में गूंजती हैं। यह व्यवहार एक ओर वर्गीय असमानता को बढ़ावा देता है दूसरी ओर बच्चों में हीन ग्रंथि को पैदा करता है। आगे यही अपराध की शक्ल में हमारे सामने आता है जिसे समझने की आवश्यकता है । कहानी का अगला चरित्र पप्पू है। पप्पू ’खिलौना’ कहानी का एक डरा-सहमा बालक है। यह कहानी ’शोभायात्रा कहानी संग्रह’ से ली गई है। वीणा और दिलीप उसके माँ-बाप है। दोनों ही कामकाजी है। दोनों ही अपने भविष्य के प्रति सतर्क है। इसी कारण दोनों अपने दोस्त को घर पर खाने पर बुलाते हैं ताकि उनके जरिए एक की बैंक कोर्स में तो दूसरे की बी.एड. में सिफारिश लगवाई जा सके। मगर इन दोनों के बाद बच्चे का क्या ’पप्पू, अब कोई दूध-पीता बच्चा तो नहीं न, बड़ा हो गया है....’ पप्पू जो पहले बहुत शरारती हुआ करता था आज बहुत ही सहमा हुआ सा देखा जाता है। या कहें कि समझदार। समझदारी ही रही कि वह भूखा बच्चा स्कूल से छूटने के चार घंटे बाद तक बिना किसी शोर के चुपचाप बुत बना खड़ा इंतजार करता रहता है। यह समझदारी ही है कि वह पड़ोसियों के घर में सारा वक्त टी.वी पर आँखे लगाए बैठा रहता है।
जब तक कि उसके माता-पिता उसे लेने नहीं आ जाते। वह किसी के हाथ का दिया कुछ नहीं लेता क्योंकि उसे सीखाया गया है। उसकी हर एक गतिविधि को उठना, बैठना रोना सभी पर दिलीप का नियंत्रण था। ’पप्पू! दिलीप ने जोर से कहा, ’आंखे बंद कर’ पप्पू जाग गया था लेकिन बाप के डर से आँखें बंद किये लेटा था’ कहानी में पप्पू का बचपन डर के साए में बढ़ता हुआ महसूस किया जा सकता है। इसका कारण आर्थिक असमानता और अच्छा जीवन जीने की लालसा रही। जिसमें पप्पू की बाल सुलभ क्रियाएं भी बाधा महसूस की गई। पप्पू जो अभी महज पांच साल का भी नहीं है। अपनी उम्र से पहले समझदार बना दिया गया। उसका वजूद मुश्किल से खाट के एक तिहाई भाग जितना सिमट चूका था। अर्थात वह भी घर में अनावश्यक रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। 80 के बाद पूंजी ने पारिवारिक संबंधों को अधिक प्रभावित किया। जबकि भीष्म साहनी की कहानियों में चीफ की दावत में ऐसा समय भी रहा जब माँ अपने बेटे की तरक्की के लिए तमाम पीड़ा और तकलीफ को भूला फुलकारी बनाने को तैयार हो जाती है। चीफ की दावत कहानी 1957 में प्रकाशित होती है। ठीक इस कहानी के उलट खिलौना कहानी का परिदृश्य रहा है। यह कहानी 1981 में आती है। 1957 से 81 तक का एक लंबा समय इन कहानियों के दरमियान गुजरता है जहाँ पहले माता-पिता बच्चों से शोषित थे अब बच्चे इस मानसिक उथल-पुथल से जूझते देखें जाते हैं।मगर दोनों ही संबंधों के दरमियान पूंजी अहम् रही जिसने इन संबंधों को बदला।
भीष्म साहनी की कहानियों का फलक आजादी और आजादी के बाद की पूंजीवादी व्यवस्था का दौर रहा। स्वयं भीष्म साहनी ने अपने जीवन में विभाजन और विभाजन के बाद के विस्थापन को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। इसी कारण वह आजादी के बाद के बाद टूटते मानवीय मूल्यों और उसमें कुछ बची हुई मानवीय संवेदनाओं को अपनी कहानियों का हिस्सा बनाते हैं और पहला पाठ कहानी के बाल चरित्र देवव्रत, पाली कहानी का पाली, पाप-पुण्य कहानी की मालती और काका के जरिए उस संवेदना को पाठक तक सम्प्रेषित करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर सत्तर के बाद पारिवारिक रिश्तों का माहौल बदलने लगता है। सयुंक्त परिवार की संरचना टूटती हैं और एकल परिवार बनते हैं। इसमें परिवार के पारंपरिक ढांचे का टूटना एक ओर सकारात्मक बदलाव का संकेतक था दूसरी ओर बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव उभरा। खिलौना कहानी का पप्पू इसी ढांचागत बदलाव की उपज था। बदलाव की इस प्रक्रिया में शहरों में स्लम में रह रहे निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी दूर नहीं थे। वह गरीबी और अमीरी के बीच के अंतर को प्रतिदिन देख और महसूस कर रहे थे। जिसका प्रभाव उनके मस्तिष्क देखा गया। लालसा कहानी बालक के मन की उसी उधेड़बुन को सामने लाती है। बच्चे अपने पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से अधिक प्रभावित होते हैं और कुंठित भी।उनकी यही कुंठा और हीन भावना उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न करती है। और यह भावबोध और मानसिकता पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक किसी भी कारण से आ सकती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो भीष्म साहनी अपने बाल चरित्रों के मनोविज्ञान के माध्यम से अपने समय के सच को सामने लाने का प्रयास करते देखें जाते हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है. आप भी अपने विचार हमें
[email protected] पर भेज सकते हैं. लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें.
भीष्म साहनी की कहानियां अपने समय के जीवन व समाज की मानसिकता को उजागर करती हैं। यह मानसिकता एक ओर विभाजन की त्रासदी से बिखरे हुए भारतीय परिवेश को समझने की रही तो दूसरी ओर उससे उत्पन्न तनाव और मानसिक द्वंद्व को सामने लाने की। क्योंकि विभाजन ने केवल दो सीमाओं को ही नहीं बांटा था। बल्कि उसने इंसानियत को भी हिंदू और मुस्लिम दो अपरिचित चेहरों में तब्दील कर दिया था। इसकी छाप केवल विभाजन से पीड़ित लोगों पर नहीं देखी गई बल्कि बच्चों पर अधिक गहरी रही। भीष्म साहनी की कहानियों में बच्चे मनोवैज्ञानिक तौर पर अपने परिवेश व समाज की वास्तविकता का बोध कराते हैं। वास्तविकता का संदर्भ धर्म की सामाजिक रूढ़ मान्यताओं से रहा है, धर्म को जिसने संकीर्ण परिभाषा में बांधा।
पहला पाठ कहानी का पात्र देवव्रत है जिसके संदर्भ में भीष्म साहनी कथावाचक की शुरूआती भूमिका में बताते हैं।’ब्रह्मचारी देवव्रत की शिक्षा-दीक्षा पुस्तकों द्वारा कम और चांटो से अधिक हुई थी। यो तो शायद सभी लोग जिंदगी के सबक चांटो द्वारा ही सीखते हैं, पुस्तकों और ज्ञान गोष्ठियों द्वारा कम, वह न केवल उसके मस्तिष्क में ही बल्कि उसकी आत्मा पर भी अमिट छाप छोड़ गई’। आगे वह लिखते हैं कि उसकी सबसे ’पहली शिक्षा उसे हिंदुत्व प्रेम की मिली, उस समय वह केवल आठ-नौ वर्ष का तरुण बालक था और अपने शहर के पास एक गुरुकुल का विद्यार्थी था’।
बालमन अपनी चंचलताओं और सवालों के लिए जाना जाता है। जिज्ञासा का भाव जिसमें बहुत गहरे से भरा होता है। यह जिज्ञासा उसके स्वयं को लेकर भी हो सकती है और दूसरों को लेकर भी। जैसा कि गुरुकुल में शिक्षा के दौरान वानप्रस्थीजी अछूतोंद्धार विषय पर व्याख्यान देते हैं और मैजिक लैटर्न पर चित्रों का प्रयोग करते हैं। देवव्रत मन्त्र-मुग्ध उन चित्रों को देख रहा था और जब वानप्रस्थजी उसमें अछूतों के बारे में बताते है कि इन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी पीने का अधिकार नहीं था। गांव के कुओं पर उनकी छाया भी नहीं पड़ सकती। तब देवव्रत का यह सोचना कि ’तो फिर यह पानी कहां से पीते हैं? क्या वह बूढ़ा पानी नहीं पीता, इसीलिए इसकी हड्डियां निकल आई हैं’। वानप्रस्थीजी आगे बढ़ते हुए कुंए की बगल में खड़े चितकबरे कुत्ते को दिखाकर बताते हैं; मगर इन्हें पानी-पीने का अधिकार है। मगर देवव्रत अब भी उसी बूढ़े को देख रहा था। उसके बालमन में बहुत से सवाल उठ रहे थे। ’अछूत कौन होते हैं? क्या सब बूढ़े, फटे कपड़े वाले अछूत होते हैं? अछूतों को पानी क्यों नहीं मिलता ?.. देवव्रत ने कभी अछूत नहीं देखा था।
बालक की मनः स्थिति को भीष्म साहनी देवव्रत के माध्यम से उठाते हैं। वह बालक क्या जानता है अछूत होना?
- फोटो : सोशल मीडिया
बूढ़े को देखकर उसने सोचाः इस जैसे आदमी तो मैंने बहुत देखें हैं, क्या सबके सब अछूत होते हैं?’ यह सवाल आज भी मौजूद है और बालमन में हर किसी के मन में उठता है मगर हम उस जिज्ञासा को कभी सही तरीके से शांत करने की अपेक्षा, उपेक्षा भरी दृष्टि बच्चे में भरते देखें जाते हैं । बच्चे लिए प्रत्येक संबंध प्रेम से जुड़ा होता है परंतु यहां वास्तविकता थोड़ी भिन्न नजर आती है। राह में चलते हुए जब देवव्रत को मैजिक लैटर्न के चित्रों जैसा ही दीनहीन चेहरा, वही उत्सुक तरसी हुई आंखे, वही नग्न दरिद्रता लिए बालक दिखता है। देवव्रत उस लड़के के पास जाता है।
’वह उसे छूता है और रोमांच से भर जाता है। लड़के के लिए यह अनुभूति नई थी। वह उसे गले लगाकर स्नेह से कहता है ’तू मेरा भाई है, तू अछूत है न, तू मेरा भाई है’। तभी देवव्रत को पीछे से तमांचा पड़ता है और वह हड़बड़ा जाता है। वह वानप्रस्थीजी को उस लड़के की ओर इशारा करते हुए रूआसी पर गर्वपूर्ण आवाज में बोलता है ’आचार्यजी, यह अछूत है, यह मेरा भाई है। उसे गर्व था कि वानप्रस्थीजी पंक्ति तोड़ने का दोष अछूतोंद्धार होना देखकर क्षमा कर देंगे’। मगर इस बार तमांचा सीधे मुंह पर पड़ता है । देवव्रत की सारी देह कांप उठती है ’यह अछूत है ? यह तुझे अछूत नजर आता है ? यह तो मुसलमान है और नन्हें देवव्रत की उद्भ्रांत त्रस्त आँखे, कभी वानप्रस्थीजी को और कभी उस हमजोली गरीब लड़के को देखती रह गई।
बालक की मनः स्थिति को भीष्म साहनी देवव्रत के माध्यम से उठाते हैं। वह बालक क्या जानता है अछूत होना? और क्या जाने मुसलमान होना? बावजूद इसके समाज व धर्माचार्य समाजीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत उसके बालमन को तैयार करते हैं। ऐसे में जब हम आज की घटनाओं ज्वाहर बाग (मथुरा), अखलाख की मौत, मुजफ्फरपुर दंगे जैसी घटनाओं को देखते हैं तो उनके पीछे इसी तरह का मनोविज्ञान देखने को मिलता है। जिसमें उन्हें सीखाया गया हिंदू और मुसलमान होना और यही धार्मिक संकीर्णता सांप्रदायिक वैमनस्य की जड़ का मूल कारण भी रही है। यह कहानी 1957 के संग्रह में शामिल थी और इस समय जाति व्यवस्था से अधिक घातक धार्मिक भेदभाव व हिंदू-मुस्लिम कट्टरता लोगों की रगों में व्याप्त थी। इसका उदाहरण कहानी के अंत में देवव्रत को पुनः थप्पड़ पड़ना था।
भीष्म साहनी की कहानी का दूसरा बाल चरित्र ’पाली’ है। पाली इनकी कहानी का शीर्षक भी है और पात्र भी। यह कहानी 1989 में प्रकाशित होती है। भारत विभाजन को एक लंबा समय बीत चुका है। बावजूद इसके समाज की धार्मिक मनः स्थिति में कोई बदलाव नहीं देखा गया। इसी दौर में 1974 के सिख दंगे होते हैं और बाबरी को लेकर भी एक तरह की मानसिकता तैयार होने लगती है। इसकी सर्वाधिक मार छोटा बालक ’पाली’ सहता है। वह दंगो में खो जाता है। सात सालों के बाद खोज-बीन के बाद भारत लाया जाता है। इस बीच वह मुस्लिम परिवार का हिस्सा बन चूका है। ’काफिले से दूर जैनब को पाली मिलता है। वह उसे मातृत्व की लालसा में अपनाना चाहती है। मगर मौलवी के लिए वह काफिर की औलाद है। वह कहता है ’क्या इसकी सुन्नते करवाई है, इससे कलमा पढ़वाया है’? यहाँ सोचने वाली बात है कि क्या मानवीयता धर्म से इतनी छोटी है कि उसके लिए सुन्नत किए बिना या कलमा पढ़े बगैर बच्चे को अपनाना गुनाह है। जबकि जैनब के मन में यह सवाल नहीं उभरता। क्योंकि उसके लिए धर्म से श्रेष्ठ मातृत्व है। वह कहती भी है कि ’उसे यह बालक न तो नापाक ही लगा था, न सांप का बच्चा ही’।
बालक यशपाल दोनों हाथ जोड़ अपने पिता के साथ सटकर द्वार के पास खड़ा घर में आए मित्र संबंधियों को विदा कर रहा था’
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धर्म की यदि नई परिभाषा को आज के संदर्भ में देखा जाए तो वह खौफ है। क्योंकि धर्म का यही खौफ जैनब को बच्चे का खतना और कलमा पढ़वाने पर मजबूर करता है। दूसरी ओर हिंदू समाज में यज्ञोपवीत के जरिए शुद्धिकरण करने को। क्योंकि यह मानसिकता उस दौर के हर शख्स में मौजूद रही कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग जाति और धर्म है और दोनों का आपस में वैमनस्य है। घर वापसी के दौरान कार में समाज सेविका द्वारा पाली की सिर की टोपी को कार से बाहर फैकना और पाली के रोने को नजरअंदाज करना। धर्म की इसी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक रहा।
बावजूद इसके राजनीति से दूर आम व्यक्ति आज भी मानवीय संवेदनाओं से भरा है। पाली का नमाज पढ़ना, उसके पिता स्वभाविक क्रिया मानते हुए, स्वीकार लेते हैं और कहते हैं कि ’बच्चा है, इसे क्या मालूम। धीरे-धीरे अपने-आप समझ जाएगा’। मगर यह समाज को नापसंद रहा। उनके लिए मानवीयता से ज्यादा धर्म मूल्यवान था। इसका सीधा प्रहार बच्चे पर होता है। उसे नमाज से उठाया जाता है। ’क्या नाम है तेरा ? ’बच्चे ने भारी-भरकम चैधरी की ओर आंख उठाकर देखा और सहमी हुई आवाज में कहा ’इल्ताफ हुसैन वल्द शकूर अहमद’। चैधरी का मन हुआ, कसकर चांटा रसीद करे लड़के के मुंह पर ।...लड़के को अपनी कलाई पर उसकी मुट्ठी का दबाव भी महसूस हुआ, पर वह अभी भी कांपता हुआ सा उसके चेहरे की ओर देखें जा रहा था। नहीं, तेरा नाम पाली है ’यशपाल, लड़का चुप रहा। फिर धीरे-धीरे से बुद-बुदाया, इल्ताफ। फिर से बोल कर तो देख यह नाम, मैं तेरी जीभ खींच लूँगा’।
इस बीच पुनः शुद्धिकरण के माध्यम से एक नए बालक की निर्मिती होती है। थोड़ी देर बाद एक युवा ब्रह्मचारी के वेष में बालक यशपाल दोनों हाथ जोड़ अपने पिता के साथ सटकर द्वार के पास खड़ा घर में आए मित्र संबंधियों को विदा कर रहा था’। इस कहानी का केंद्र छोटा बालक पाली रहा जो धार्मिक संकीर्णता के माहौल के बीच डरा और सहमा हुआ देखा गया। संस्कार व्यक्ति को बनाते है या व्यक्ति संस्कारों को। आजीवन जिनके लिए वह संघर्ष करता है। उसका प्रभाव उसके जीवन की प्रत्येक गतिविधि पर रहता है। यही संस्कार वह अपने बच्चों में भी डालना चाहता है। पाप-पुण्य कहानी के पात्र मालती और काका इस मानसिकता को ग्रहण करते देखे जाते हैं। मालती जो महज 4 वर्ष की है और काका 2 वर्ष का। उनके बाल मन पर बचपन से ही सदाचार की शिक्षा का बीज डालने का काम उनके पिता करते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि ’सदाचार की शिक्षा का बीज तो बचपन ही में मस्तिष्क में पड़ जाए तो फलता है बाद में तो तरह-तरह के संस्कार अंकुर तक फूटने नहीं देते’ यहाँ सदाचार का संबंध आज्ञाकारिता से है।
भीष्म साहनी की कहानियों का फलक आजादी और आजादी के बाद की पूंजीवादी व्यवस्था का दौर रहा।
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मालती जब अपने पिता के अनुरूप व्यवहार करती है तो वह अच्छी बेटी के रूप में उभरती है। जबकि उससे पहले उसका सदाचार चड्डी न पहने पर और पूरे घर में नंगे घूमने पर खत्म हो जाता है। यहाँ प्रेम और अपनत्व के सहज संबंध धर्म के फेर में बदल जाते हैं। धर्म व्यक्ति को मनुष्य नहीं बनाता बल्कि आज्ञाकारी बनाता और दण्डित करता है। वह सही गलत की दृष्टि विकसित नहीं करता है। जबकि धर्म विचार है जो आपको मानवीय होना सीखाता है। भीष्म साहनी ने जहाँ अपने तीन केंद्रीय बाल चरित्रों के माध्यम तत्कालीन समाज, धर्म और मानवीयता के अंतर्द्वंद्व को उभारा है। वहीं उनकी दो कहानियां ’ललक’ और ’झरोखे’ अलग परिदृश्य को उजागर करती हैं। यह परिदृश्य वर्गीय असमानता का है। ललक कहानी 1973 में प्रकाशित ’पटरियां कहानी संग्रह’ से ली गई है। ललक कहानी का बाल पात्र निम्न मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है। बालक कहता भी है ’अव्वल तो किसी न किसी के उतरे हुए कपड़े पहनने को मिलते, ऐसा न होता तो कमीज-पजामा माँ सी देती थी। और यदि माँ बाल काट सकती तो मुझे कभी नाई के पास भी नहीं जाना पड़ता’। बच्चे में निम्नमध्यवर्गीय स्थिति से बाहर आने की झटपटाहट देखी जाती है। साहनी बच्चे की इन लालसाओं को उजागर करते हैं जहाँ वह चाहकर भी अमीर और गरीब के बीच खींची विभाजक रेखा को कम करने में असमर्थ है।
बावजूद इसके वह अपनी गरीबी के लेबल को कुछ कम करने का उपाय ढूंढ लेता है। वह उपाय है उसका दोस्त। ’मैं अपनी जूती को पानी से धोता, घर के धुले पाजामे के ऊपर ईटें रख-रखकर उसकी सलवटें निकाल लेता, बालों पर सरसों का तेल चुपड़ता, बंद गले के अपने कोट के दो बटनों के बीच पिताजी का रुमाल खोस लेता और सीधा रोशनलाल के घर की दहलीज पर जा खड़ा होता। रोशनलाल मेरा सहपाठी था और नंगा सोता था। अधेड़ उम्र की उसकी विधवा माँ, मिट्टी से पुती कोठरी में जमीन पर बैठी जब मेरी ओर देखती और हाथ बढ़ाकर कहती, ओहो, छोटे बाबूजी आज तो बड़े बन-ठनकर आये हो तो मुझे बड़ा सन्तोष होता। मेरे पास जूते थे, रोशन के पास वे भी नहीं थे, उसके पास पहनने वाले कपड़ों का भी एक ही जोड़ा था, इसीलिए वह नंगा सोता था, इस घर के सामने खड़ा मैं अमीर लगता था’। अपने से गरीब के आगे खुद को अमीर और बड़ा समझे जाने की बच्चे की मानसिकता यहाँ उजागर होती है और यह परिवेशगत है।
वह अपने अमीर सहपाठियों से दोस्ती करने का लगातार प्रयास करता देखा जाता है। अमीर कैसे होते हैं उस भाव को खोजने का प्रयास करता है। जैसा कि वह कहता है ’हरदेव का मुंह सारा वक्त खुला रहता और निचला होठ तनिक लटकता रहता। मैं भी मुह खोले घुमने लगा, ताकि मेरा होठ भी लटका रहेे, पर उसका होठ गदराया हुआ था, इस कारण लटक सकता था, जबकि मेरा होठ पतला था, तना रहता। वह हर काम धीरे-धीरे करता था, सर हिलाता तो धीरे-धीरे मुस्कराता तो धीरे-धीरे अधखुली नामदार आँखों और गदराये होठों के साथ। तभी मैंने जाना कि सच्ची अमीरी सुस्ती में पायी जाती है, हौले-हौले, उठने-बैठने में धीमें-धीमें मुस्कराने में, तैरती नजर से देखते रहने में’। वह बालक हरदेव के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है ताकि वह अपने सहपाठी हरदेव के जरिए अमीरी के अहसास को छू सके।
यह बच्चा वर्गीय असमानता से उभरी मानसिकता की उपज है। उसकी गरीबी उसका मजाक बनाती है। हरदेव की जन्मदिन की पार्टी में हॉकी मैच का आयोजन होता है। जहाँ निक्कर न होने के कारण बालक पजामा पहनकर आता है। हरदेव के घर में वह पजामा पार्टी के रूप में, बाद में पजामे वाले लंगूर के रूप में संबोधित किया जाता है। बालक इससे आहत होता है। उसका गुस्सा कमजोर अपाहिज बूढ़े पर निकलता है। वह हॉकी से उसे पीट देता है। जबकि इससे पहले भी कई बार राह में वह उस बूढ़े से मिलता रहा है। मगर आज स्थिति बदली थी। हरदेव के भाई मंगत द्वारा उसे कमजोर समझकर उसका अपमान किया गया था। गरीब और कमजोर होने के कारण उस दौरान तो वह कुछ नहीं कर पाया था। मगर बूढ़े को अपने से कमजोर जान वह उस पर अपनी दबी कुंठा को जाहिर करता है। ’तभी मैंने मंगत की सी सफाई के साथ उसके टखने पर जोर से हॉकी जमा दी और वह कराहकर जमीन पर बैठ गया’।
अपने से कमजोर को दबाए जाने की पूंजीवादी शोषण की मानसिकता ’ललक’ कहानी में उजागर होती है। क्योंकि जो तकलीफ इस वक्त बूढ़े को हो रही थी वही खेल के मैदान में बालक को होती है। मंगत जब जान-बूझकर उसे मार रहा होता है। मगर उस वक्त केवल एक ही आवाज उसके जहन तक पहुँच रही होती है ’फाऊल, फाउल, फाउल! शाबाश, शाबाश, शाबाश! खेलो, खेलो, खेलो!’ यह आवाज मंगत और हरदेव के पिता की थी। यही आवाज बूढ़े को मारने के बाद फिर से बालक के जहन में गूंजती हैं। यह व्यवहार एक ओर वर्गीय असमानता को बढ़ावा देता है दूसरी ओर बच्चों में हीन ग्रंथि को पैदा करता है। आगे यही अपराध की शक्ल में हमारे सामने आता है जिसे समझने की आवश्यकता है । कहानी का अगला चरित्र पप्पू है। पप्पू ’खिलौना’ कहानी का एक डरा-सहमा बालक है। यह कहानी ’शोभायात्रा कहानी संग्रह’ से ली गई है। वीणा और दिलीप उसके माँ-बाप है। दोनों ही कामकाजी है। दोनों ही अपने भविष्य के प्रति सतर्क है। इसी कारण दोनों अपने दोस्त को घर पर खाने पर बुलाते हैं ताकि उनके जरिए एक की बैंक कोर्स में तो दूसरे की बी.एड. में सिफारिश लगवाई जा सके। मगर इन दोनों के बाद बच्चे का क्या ’पप्पू, अब कोई दूध-पीता बच्चा तो नहीं न, बड़ा हो गया है....’ पप्पू जो पहले बहुत शरारती हुआ करता था आज बहुत ही सहमा हुआ सा देखा जाता है। या कहें कि समझदार। समझदारी ही रही कि वह भूखा बच्चा स्कूल से छूटने के चार घंटे बाद तक बिना किसी शोर के चुपचाप बुत बना खड़ा इंतजार करता रहता है। यह समझदारी ही है कि वह पड़ोसियों के घर में सारा वक्त टी.वी पर आँखे लगाए बैठा रहता है।
जब तक कि उसके माता-पिता उसे लेने नहीं आ जाते। वह किसी के हाथ का दिया कुछ नहीं लेता क्योंकि उसे सीखाया गया है। उसकी हर एक गतिविधि को उठना, बैठना रोना सभी पर दिलीप का नियंत्रण था। ’पप्पू! दिलीप ने जोर से कहा, ’आंखे बंद कर’ पप्पू जाग गया था लेकिन बाप के डर से आँखें बंद किये लेटा था’ कहानी में पप्पू का बचपन डर के साए में बढ़ता हुआ महसूस किया जा सकता है। इसका कारण आर्थिक असमानता और अच्छा जीवन जीने की लालसा रही। जिसमें पप्पू की बाल सुलभ क्रियाएं भी बाधा महसूस की गई। पप्पू जो अभी महज पांच साल का भी नहीं है। अपनी उम्र से पहले समझदार बना दिया गया। उसका वजूद मुश्किल से खाट के एक तिहाई भाग जितना सिमट चूका था। अर्थात वह भी घर में अनावश्यक रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। 80 के बाद पूंजी ने पारिवारिक संबंधों को अधिक प्रभावित किया। जबकि भीष्म साहनी की कहानियों में चीफ की दावत में ऐसा समय भी रहा जब माँ अपने बेटे की तरक्की के लिए तमाम पीड़ा और तकलीफ को भूला फुलकारी बनाने को तैयार हो जाती है। चीफ की दावत कहानी 1957 में प्रकाशित होती है। ठीक इस कहानी के उलट खिलौना कहानी का परिदृश्य रहा है। यह कहानी 1981 में आती है। 1957 से 81 तक का एक लंबा समय इन कहानियों के दरमियान गुजरता है जहाँ पहले माता-पिता बच्चों से शोषित थे अब बच्चे इस मानसिक उथल-पुथल से जूझते देखें जाते हैं।मगर दोनों ही संबंधों के दरमियान पूंजी अहम् रही जिसने इन संबंधों को बदला।
भीष्म साहनी की कहानियों का फलक आजादी और आजादी के बाद की पूंजीवादी व्यवस्था का दौर रहा। स्वयं भीष्म साहनी ने अपने जीवन में विभाजन और विभाजन के बाद के विस्थापन को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। इसी कारण वह आजादी के बाद के बाद टूटते मानवीय मूल्यों और उसमें कुछ बची हुई मानवीय संवेदनाओं को अपनी कहानियों का हिस्सा बनाते हैं और पहला पाठ कहानी के बाल चरित्र देवव्रत, पाली कहानी का पाली, पाप-पुण्य कहानी की मालती और काका के जरिए उस संवेदना को पाठक तक सम्प्रेषित करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर सत्तर के बाद पारिवारिक रिश्तों का माहौल बदलने लगता है। सयुंक्त परिवार की संरचना टूटती हैं और एकल परिवार बनते हैं। इसमें परिवार के पारंपरिक ढांचे का टूटना एक ओर सकारात्मक बदलाव का संकेतक था दूसरी ओर बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव उभरा। खिलौना कहानी का पप्पू इसी ढांचागत बदलाव की उपज था। बदलाव की इस प्रक्रिया में शहरों में स्लम में रह रहे निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी दूर नहीं थे। वह गरीबी और अमीरी के बीच के अंतर को प्रतिदिन देख और महसूस कर रहे थे। जिसका प्रभाव उनके मस्तिष्क देखा गया। लालसा कहानी बालक के मन की उसी उधेड़बुन को सामने लाती है। बच्चे अपने पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से अधिक प्रभावित होते हैं और कुंठित भी।उनकी यही कुंठा और हीन भावना उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न करती है। और यह भावबोध और मानसिकता पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक किसी भी कारण से आ सकती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो भीष्म साहनी अपने बाल चरित्रों के मनोविज्ञान के माध्यम से अपने समय के सच को सामने लाने का प्रयास करते देखें जाते हैं।
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