हमीरपुर। जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के लिए आज नहीं चेते तो हमारी अगली पीढ़ी को सांस लेना दूभर हो जाएगा। बढ़ती आबादी, घटते पेड़ और सिकु ड़ते प्राकृतिक संसाधन मानव जीवन के लिए खतरे का संकेत दे रहे हैं। आज जरूरत है कि जन सहभागिता के आधार पर पर्यावरण संरक्षण करने की।
वर्ष 1947 में जिले की 30 फीसदी भूमि में वन थे, चूंकि यहां की भूमि प्रकृति क्षारीय है। जंगलों में परंपरागत आम, आंवला, किन्नो, अमरूद, नींबू, बेर, महुवा, गूलर, शीशम, अंजीर, जामुन, इमली, नीम बरगद, पीपल, सागौन के काफी वृक्ष लगे थे। जंगली जीवों के लिए पोखरों में पर्याप्त पानी रहता था लेकिन बदलते हालातों में विकास के नाम पर लोगों वनों को उजाड़ दिया। सरकारी योजनाओं से वन आक्षादित इलाके सिकुड़कर चार फीसदी रह गए। यानी 24 प्रतिशत वन क्षेत्र या तो खेतों में तब्दील हो गए या फिर आबादी बस गई। वातानुकूलित कमरों में बनाई गई योजनाओं को लागू करने में यहां की भूमि, प्रकृति व परंपरागत वृक्षों के विषय में कोई पड़ताल तक नहीं की गई और न ही यहां के जल स्रोतो, नदियों, तालाबों, पोखराें और कुओं की परवाह की गई। पूरे साल बहने वाली नदियां अपना अस्तित्व खोती जा रही है। वनीय इलाकों में मात्र झांड़िया, प्रोसपिस, जूली फ्लोरा ही अधिकाधिक मौजूदगी है। भूमि सख्त हो गई है, जंगलों से नमी नाम की चीज ही गायब हो गई। कभी शेर चीते, भालू, लकड़बघ्घे, बारासिंघा, हिरन आदि थे। इंसानों ने इन्हें भी खत्म कर दिया। आज केवल सियार, लोमड़ी व वनरोज बचे है। 2008 में विशेष वृक्षारोपण अभियान चलकर 1 करोड़ 26 लाख पौधे लगाए गए थे लेकिन उनमें कितने वृक्ष बचे हैं यह कहना मुश्किल है।